डिप्लोमा इन जैनोलोजी कोर्स का अध्ययन परमपूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी द्वारा प्रातः 6 बजे से 7 बजे तक प्रतिदिन पारस चैनल के माध्यम से कराया जा रहा है, अतः आप सभी अध्ययन हेतु सुबह 6 से 7 बजे तक पारस चैनल अवश्य देखें|
१८ अप्रैल से २३ अप्रैल तक मांगीतुंगी सिद्धक्ष्रेत्र ऋषभदेव पुरम में इन्द्रध्वज मंडल विधान आयोजित किया गया है |
२५ अप्रैल प्रातः ६:४० से पारस चैनल पर पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के द्वारा षट्खण्डागम ग्रंथ का सार प्रसारित होगा |
अज्ञानी :
अज्ञानी :
सो मूढो अण्णाणी, णाणी एत्तो दु विवरीदो।।
‘जो ऐसा मानता है कि मैं दूसरों को दु:खी या सुखी करता हूँ’, वह वस्तुत: अज्ञानी है। ज्ञानी ऐसा कभी नहीं मानते।
नैव शोचत्यात्मानं, क्लिश्यमानं भवसमुद्रे।।
अज्ञानी मनुष्य अन्य भवों में गए हुए दूसरे लोगों के लिए तो शोक करता है, किन्तु भवसागर में कष्ट भोगने वाली अपनी आत्मा की चिन्ता नहीं करता।
भीमे भवकन्तारे, सुचिरं भमियं भयकरम्मि।।
हा ! खेद है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़मति भयानक और घोर संसार—रूपी अटवी में चिरकाल तक भ्रमण करता रहा।
अलिय—वियप्पिय—माया—पिय—पुत्त—परंपरा—मूढा।।
नदी के किनारे बालक रेती का नकली घर बनाकर क्रीड़ा करते हैं, उसी तरह मूढात्मा संसार में माता—पिता पुत्र की अयथार्थ परम्परा को मानता है।
पेच्छंतो णिसुणंतो णिरए जं पडइ तं चोज्जं।।
अंध कूप में गिर जाता है और बहरा साधु (सज्जन) का उपदेश नहीं सुनता, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। आश्चर्य यही है कि यह जीव देखता और सुनता हुआ भी नरक कूप जा पड़ता है।
तह सिद्धिसुरूवपरुक्खा, संसारदुहं सुहं विंति।।
जिस तरह नीम के वृक्ष में उत्पन्न क्रीड़ा नीम की कटुता को भी मीठा मानता है, उसी तरह मोक्ष—सुख से परांगमुख व्यक्ति संसार के दु:ख को भी सुख मानता है।