२७ अप्रैल से २९ अप्रैल तक ऋषभदेवपुरम् मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र में लघु पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आयोजित की गई है |
२५ अप्रैल प्रातः ६:४० से प्रतिदिन पारस चैनल पर पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के द्वारा षट्खण्डागम ग्रंथ का सार प्रसारित होगा |
अनगार भावना अधिकार
अनगार भावना अधिकार
उज्झणसुद्धी य पुणो वक्वं च तवं तधा झाणं।।७७१।।
एदमणयारसुत्तं दसविधपद विणयअत्थसंजुत्तं।
लिंगशुद्धि, व्रतशुद्धि, वसतिशुद्धि, विहारशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, ज्ञानशुद्धि, उज्झनशुद्धि, वाक्यशुद्धि, तप:शुद्धि और ध्यानशुद्धि, ये दश प्रकार के अनगार सूत्र हैं, जो कि विनय और अर्थ संयुक्त हैं जो इनको पढ़ते हैं, उनके पाप नष्ट हो जाते हैं।
(१) लिंगशुद्धि - जो मनुष्य इस शरीर को नश्वर जानकर गृह भोगों से विरक्त हो जिनवर मत में प्रीति से युक्त हो निर्ग्रन्थ जिनमुद्रा धारण कर लेते हैं, उनके लिंग शुद्धि होती है। इस लिंगशुद्धि में ही सम्यग्दर्शन शुद्धि, ज्ञानशुद्धि, तप शुद्धि और चारित्रशुद्धि भी आ जाती है।
(२) व्रतशुद्धि - जीवहिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन और परिग्रह इन पापों का मन, वचन, काय से त्यागकर पाँच महाव्रतों में दृढ़ बुद्धि रखना व्रत शुद्धि है। ये मुनि सर्व आरंभ से निवृत्त होकर जिनवर कथित धर्म में उद्युक्त रहते हैं। ये महासाधु मुनिपद के अयोग्य ऐसे बालमात्र परिग्रह में भी ममत्व नहीं करते हैं। और तो क्या अपने शरीर से भी ममत्व नहीं करते हैं, उन्हीं के यह शुद्धि होती है।
(३) वसतिशुद्धि -
सवणा फासुविहारी विवित्त एगंतवासी ये।।७८९।।
जो मुनि गाँव में एक रात्रि और नगर में पाँच दिवस रहते हैं पुन: प्रासुक प्रदेश देखकर विहार कर जाते हैं, वे प्राय: एकांत प्रदेश में रहते हैं। उन्हीं के यह वसतिशुद्धि होती है।
सुक्कज्झाणरदीया मुत्तिसुहं उत्तमं पत्ता।।७८८।।
एकांत स्थान की खोज करने वाले ये मुनि उत्तम गंधहस्ती के समान धीर, वीर होते हैं और शुक्लध्यान में लीन होकर उत्तम मुक्ति सुख को प्राप्त कर लेते हैं।
यहाँ शुक्लध्यान करने में सक्षम ऐसे जिनकल्पी मुनि की ही यह चर्या है, सामान्य स्थविरकल्पी मुनि के लिए यह अनिवार्य नहीं है, चूँकि वे एक स्थान पर एक माह भी रह सकते हैं। चूँकि इनके लिए और भी कहा है-
धीरा अदीणमणसा रममाणा वीरवयणम्मि।।७८९।।
ये मुनि एकाकी रहते हैं, विह्वलता से रहित, धैर्य आदि गुणों से सहित होकर पर्वत व कंदराओं में निवास करते हैं तथा दीनता रहित होकर वीरप्रभु के वचन में ही अनुराग रखते हैं। कई गाथाओं में इनके निर्जन, घनघोर, भयंकर वनों में निवास का वर्णन है। ऐसे महाधीर, उत्तम संहनन वाले मुनि के लिए यह वसति शुद्धि पूर्णरूप से होती है।
(४) विहारशुद्धि - जो मुनि सर्वसंग रहित होकर वायु के समान नगर, उद्यान आदि से सहित वसुधा में सर्वत्र स्वच्छंद-इच्छानुसार विचरण करते हैं उन्हीं के यह शुद्धि होती है। ये नाना देशों में विहार करते हुए भी ज्ञान के उपयोग से व समितिपूर्वक विहार करने से जीवों में बहुल प्रदेश में भी पाप से लिप्त नहीं होते हैं। ये साधु सदा गर्भवास आदि दु:खों से भयभीत रहते हैं-
रुहिरचलाविलपउरे वसिदव्वं गब्भवसदीसु।।८०८।।
घोर, नरक के समान, वुंभीपाक में पकते हुए नारकियों को जैसा दु:ख होता है, वैसा ही रुधिर से बीभत्स गर्भवास में निवास करने से दु:ख होता है, ऐसा विचार करते हुए ये मुनि वैराग्य भावना का चिंतवन करते रहते हैं।
(५) भिक्षाशुद्धि - दो, तीन, चार, पाँच आदि उपवासों को करके वे तपस्वी मुनि श्रावक के घर में आहार लेते हैं। चारित्रसाधना के लिए और क्षुधा बाधा को दूर करने के लिए वे आहार ग्रहण करते हैं, सरस भोजन आदि की लंपटता के लिए नहीं लेते हैं, उन्हीं मुनि के यह भिक्षा शुद्धि होती है।
(६) ज्ञानशुद्धि - जिनको ज्ञान चक्षु प्राप्त हो चुका है और उस ज्ञान प्रकाश से जिन्होंने परमार्थ को देख लिया है, वे नि:शंकित और निर्विचिकित्सा गुणों से सहित होते हुए अपनी शक्ति के अनुसार उत्साह धारण करते हैं। ये तपश्चरण के बल से क्षीणशरीरी होकर भी अंग-पूर्व ग्रंथों का अथवा अपने समय के अनुसार श्रुत का सतत अध्ययन मनन करते रहते हैं। उन्हीं मुनि के यह ज्ञानशुद्धि होती है।
(७) उज्झनशुद्धि - जो मुनि अपने शरीर में भी स्नेह रहित होकर बंधु आदि में स्नेह का त्याग कर देते हैं तथा संस्कार आदि नहीं करते हैं उन्हीं के यह शुद्धि होती है। ये मुनि व्याधि से वेदना के होने पर भी उसका प्रतिकार नहीं चाहते हैं। ये क्या औषधि लेते हैं ?
जरमरणबाहिवेयण खयकरणं सव्वदुक्खाणं।।८४३।।
जिनेन्द्र भगवान के वचन ही महाऔषधि हैं, ये विषय सुख का विरेचन कराने वाले हैं, अमृतरूप हैं, जरा मरणरूपी व्याधि की वेदना और सर्व दु:खों का क्षय करने वाले हैं। शरीर तो रोगों का घर है उसके प्रति ऐसा विचार करने वाले मुनि के यह शुद्धि होती है।
(८) वाक्यशुद्धि - जो मुनि कानड़ी, मराठी, गुजराती, हिन्दी, संस्कृत आदि भाषा को विनयपूर्वक बोलते हैं। धर्म विरोधी वचन नहीं बोलते हैं। आगम के अनुकूल स्व-पर हितकर वचन ही बोलते हैं अथवा मौन रखते हैं उन्हीं के वाक्यशुद्धि होती है। ये मुनि स्त्रीकथा आदि विकथा नहीं करते हैं।
(९) तप:शुद्धि - जो मुनि हेमंत ऋतु में धैर्य से युक्त हो खुले मैदान में रात्रि में बर्पâ, तुषार को झेलते हैं। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की तरफ मुख करके खड़े हो जाते हैं और वर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे बूंदों को सहन करते रहते हैं, इत्यादि नाना प्रकार के तपश्चरण में लगे हुए मुनि के यह तप:शुद्धि होती है।
(१०) ध्यानशुद्धि - पांच इन्द्रियों का दमन करने वाले और मन को जीतने वाले मुनि धर्म, शुक्ल- ध्यान की शुद्धि को करते हैं। ये मुनि-
जरमरणविप्पमुक्का उवेंति सिद्धिं धुदकिलेसा।।८८७।।
पूर्णरूप से त्रयोदशविध और क्रिया और त्रयोदशविध चारित्र के पालन में निष्णात ये मुनि गाढ़ कर्मबंधन को नष्टकर जन्म, मरण से मुक्त होकर और सर्व अघातिया कर्मों से भी छूटकर सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं। ये दश प्रकार की शुद्धि पालने वाले मुनि किन-किन नामों से कहे जाते हैं ?
णामाणि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतोत्ति।।८८८।।