रजस्वला स्त्री का अशौच
रजस्वला स्त्री का अशौच
महीने-महीने में स्त्रियों के जो रज:स्राव होता है, उस समय वो स्त्रियाँ रजस्वला कहलाती हैं । उन दिनों में उन्हें किसी भी वस्तु का स्पर्श नहीं करना चाहिए। देव-शास्त्र और गुरु का दर्शन भी नहीं करना चाहिए। अर्धरात्रि के अनन्तर रजस्वला होने पर प्रात:काल से अशौच गिनना चाहिए। इस तरह रजस्वला स्त्री तीन दिन तक स्नान, अलंकार आदि न करे, ब्रह्मचर्य का पालन करे। चतुर्थ दिवस स्नान कर शुद्ध होकर घर के काम-काज कर सकती है, देवपूजा, गुरुपास्ति आदि कार्यों को पाँचवें दिन कर सकती है।
एक बार रजस्वला होने के बाद बारह दिन के अंदर ही यदि रजोदर्शन हो जाये तो वह स्नान से शुाद्ध हो जाती है। यदि अठारह दिन के पहले रज:स्राव हो जाता है, तो भी स्नानमात्र से शुाद्ध हो जाती है। यदि अठारहवें दिन होता है तो दो दिन का अशौच मानना चाहिए। अठारह दिन के बाद होने पर तीन दिन तक अशुद्धि मानी गई है। रजस्वला स्त्रियाँ यदि आपस में एक-दूसरे को स्पर्श कर लेती हैं तो उन्हें चतुर्थ दिवस शुद्ध होकर गुर्वानी के पास प्रायश्चित लेने का विधान है।
जो स्त्रियाँ रजस्वला के दिनों में अशौच का पालन नहीं करती हैं, सभी को छूती रहती हैं या भोजन बनाकर सभी को खिला देती हैं, वे इस लोक में स्वास्थ्य हानि के साथ-साथ धार्मिक परम्परा की हानि करती हैं तथा पाप का संचय करके अगले भव की भी हानि कर लेती हैं अत: महिलाओं को इन तीन दिनों में विवेकपूर्वक अशौच का पालन करना चाहिए।
रजस्वला स्त्री के कर्तव्य-
अशौचं कथितं देवै:, द्विजानां सुव्रतात्मनाम्।।
अर्थ—जिनेन्द्र भगवान ने व्रत पालने वाले त्रिवर्णों को चार प्रकार का सूतक बतलाया है। पहला आर्तव—ऋतुधर्म-मासिकधर्म से होने वाला, दूसरा सौतिक—प्रसूति से होने वाला, तीसरा मात्र्यव—मृत्यु से होने वाला और चौथा इन तीनों के संसर्ग से होने वाला।
पत्यौ हि केवलं सा च, दान-पूजासु पंचमे।।
अर्थ-रजस्वला स्त्री को तीन दिन तक अशौच मानना चाहिए। वह स्त्री चौथे दिन पति आदि परिवारजनों को भोजन आदि बनाने के लिए शुद्ध मानी जाती है तथा दान-पूजनादि धर्मकार्यों में (यदि पूर्ण शुद्ध हो तो) पाँचवें दिन शुद्ध मानी जाती है।
दान-पूजा-क्रियादौ च, नाधिकारोऽस्ति सर्वथा।
अर्थ-यदि कोई स्त्री बार-बार रजस्वला होती हो, स्नान करने के बाद फिर रजस्वला हो जाती हो तो उसे पात्रदान एवं जिनपूजा आदि किसी भी प्रकार के धर्म-कर्म नहीं करने चाहिए। धार्मिक क्रियाएँ करने का उसे अधिकार नहीं होता है।
तस्या अप्यधिकारो न, दान-पूजादि-कर्मणि।।
अर्थ-कोई स्त्री भले रोग आदि के कारण भी बार-बार रजस्वला होती हो तो भी उसे दान-पूजा आदि कोई भी धार्मिक कार्य करने का अधिकार नहीं है।
ब्रह्मचर्य-समायुक्ता, जन-स्पर्शविवर्जिता।
अर्थ-रजस्वला स्त्री को किसी एकान्त स्थान में मौन धारण कर बैठना चाहिए। ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना चाहिए और अन्य किसी का भी स्पर्श नहीं करना चाहिए।
<poem><center>गृहकार्यं न सा कुर्याद्, गानं नृत्यं च वादनम्।
सीवनं रन्धनं हास्यं, पेषणं जलगालनम्।।
विदधाति न षट्कर्म, ध्यायन्ती श्रीजिनं हृदि।
गुरुदेवजनै: सार्धं, कुर्यान्नैव च भाषणम्।।
अर्थ- उस रजस्वला स्त्री को गृहकार्य नहीं करना चाहिए। गाना, नाचना, वाद्य बजाना, वस्त्र आदि सीना, चाय, नाश्ता एवं रसोई आदि बनाना, हास्य करना, पीसना एवं जल आदि छानना ऐसे अन्य और भी कोई कार्य नहीं करना चाहिए।
षट्कर्मों में से भी कोई धर्म-कर्म उसे नहीं करना चाहिए। उसे तो केवल अपने हृदय में जिनेन्द्र भगवान का स्मरण करते रहना चाहिए तथा गुरु एवं अन्य जनों के साथ किसी प्रकार की भी बातचीत नहीं करनी चाहिए।
कुर्याद्वैकाशनं शुद्धं, रहसि स्वस्थ-मानसा।।
अर्थ-रजस्वला स्त्री को पत्तल में या पीतल के बर्तन में नीरस भोजन करना चाहिए और एकाशन करते हुए स्वस्थ चित्त से एकान्त में रहना चाहिए।
उष्णोदकेन वा शुद्ध-जलेनाचमनान्विता।।
तत: प्रसन्न-भावेन, पतिं सा समलोकयेत्।
तमेव भावयेच्चित्ते, तस्या एतद् व्रतं मतम्।।
अर्थ-उस रजस्वला स्त्री को चौथे दिन छने हुए शुद्ध जल से या गर्म जल से सवस्त्र स्नान करके और कुल्ला आदि करके प्रसन्नचित्त से सर्वप्रथम अपने पति के दर्शन करने चाहिए, अपने हृदय में पति का ही चिन्तन करना चाहिए। यह उसको अपना एक व्रत समझना चाहिए।
दूसरे-तीसरे दिन रसोई आदि बनाकर परिवार को नहीं खिलाना चाहिए। गृहकार्य के लिए नल आदि से जल नहीं भरना चाहिए। स्नान आदि के जल का स्पर्श नहीं करना चाहिए। वस्त्रों को धोने, सुखाने और उन्हें उठाकर उनकी तह आदि के कार्य नहीं करना चाहिए।
आपके घर के सदस्य यदि आपकी अशुचि अवस्था में स्पर्शित अशुद्ध जल से स्नान करके और वे ही वस्त्र पहिनकर मंदिर जाते हैं, स्वाध्याय करते हैं, माला फैरते हैं, तो इसका पाप आपको लगता है अर्थात् इससे आपके पाप-कर्म का बंध होता है। क्या आप जानती हैं कि ९६ कुभोगभूमियों में कौन उत्पन्न होते हैं ? श्रीमन्नेमिचन्द्राचार्य त्रिलोकसार गाथा ९२४ में कहते हैं कि-
कय-दाणा वि कुवत्ते, जीवा कुणरेसु जायंते।।
अर्थ
-जो दुर्भावना अर्थात् ईष्र्या आदि खोेटे भावों से आहारदान देते हैं, जो अपवित्र अवस्था में अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव इन चार शुद्धियों की अवहेलना करके आहारदान देते हैं, जो सूतक-पातक आदि को नहीं मानते और आहारदान आदि देते हैं, जो रजस्वला स्त्री के स्पर्श से युक्त आहार देते हैं, जो जातिसंकर आदि दोषों से दूषित होते हुए भी आहारदान देते हैं और जो कुपात्रों को दान देते हैं, वे जीव मरकर कुभोग-भूमियों में कुमनुष्य होते हैं।
वैदिक धर्म में भी कहा है कि-रजस्वला स्त्री एकान्त में रहे। किसी भी वस्तु का स्पर्श न करे। हल्का भोजन ग्रहण करे। सांसारिक कार्यों से मुक्त (दूर) रहे। रंगीन शृंगारिक वस्त्र न धारण करे। प्राकृतिक जीवन व्यतीत करे। तेल-उबटन का उपयोग न करे। शृँगार की दृष्टि से स्नान न करे। आमोद-प्रमोद से कोसों दूर रहे। किसी से वार्तालाप न करे। घास-फूस अथवा जूट के बिस्तर पर शयन करे। मिट्टी के बर्तन में मूँग, चावल जैसा सात्त्विक भोजन करे। शृँगार न करे। हँसी-मजाक न करे। सार्वजनिक स्थल अर्थात हॉल, चबूतरा, गैलेरी व चौपाल जैसे स्थानों पर न बैठे। पति के साथ भी वार्तालाप न करे। मंदिर और गौशाला में न जावे। ‘‘दिनत्रयं त्यक्त्वा शुद्धा स्याद् गृहकर्मणि’’ अर्थात् रजस्वला स्त्री तीन दिन के बाद ही गृहकार्य करने हेतु शुद्ध होती है।
धर्मप्राण और शीलप्रधान भारत देश के प्राय: सभी धर्म रजस्वला अवस्था को संक्रामक रोग सदृश अछूत और अपवित्र घोषित कर रहे हैं व उस अवस्था में आपको क्या-क्या नहीं करना चाहिए, इसका विधान बता रहे हैं, अत: आप सभी महिलाओं को इसे स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार से श्रावक-श्राविकाओं को अपनी वर्तमान एवं भावी पीढ़ी को संस्कारित करने हेतु अष्टमूलगुण आदि का पालन करने के साथ-साथ निम्न षट् कत्र्तव्यों को भी यथाशक्ति पालन करना चाहिए—
दानं चेति गृहस्थानां, षट्कर्माणि दिने दिने।।
अर्थात् जिनमंदिर में जाकर जिनेन्द्र भगवान की पूजा, गुरु की उपासना, शास्त्र स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये गृहस्थों को षट्कर्म प्रतिदिन करना चाहिए।
इन षट्कर्मों में भी दान और पूजा इन दो क्रियाओं को श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने सर्वाधिक महत्त्व देते हुए कहा है— ‘‘दाणं पूजा मुक्खो, सावय धम्मो ण सावया तेण विणा’’ अर्थात् दान और पूजन ये श्रावक धर्म की दो मुख्य क्रियाएँ हैं, इनके बिना श्रावक संस्कार सार्थक नहीं है।
जिनेन्द्र भगवान की पूजन और उनके दर्शन का भारी महत्त्व जैन रामायण (पद्मपुराण) में भी आया है—
अष्टमस्य तदारम्भे, गमने दशमस्य तु।।१७८।।
द्वादशस्य तत: किंचिन्मध्ये पक्षोपवासजम्।
फलं मासोपवासस्य लभते चैत्यदर्शनात्।।१७९।।
चैत्याङ्गणं समासाद्य याति षण्मासिकं फलम्।
फलं वर्षोपवासस्य प्रविश्य द्वारमश्नुते।।१८०।।
फलं प्रदक्षिणीकृत्य भुङ्त्ते वर्षशतस्य तु।
दृष्ट्वा जिनास्यमाप्नोति फलं वर्षसहस्रजम्।।१८१।।
अनंतफलमाप्नोति स्तुतिं कुर्वन् स्वभावत:।
नहि भत्तेर्जिनेन्द्राणां विद्यते परमुत्तमम्।।१८२।।
अर्थ
जो मनुष्य जिनप्रतिमा के दर्शन का चिन्तवन करता है वह बेला का, जो उद्यम का अभिलाषी होता है वह तेला का, जो जाने का आरंभ करता है वह चौला का, जो जाने लगता है वह पाँच उपवास का, जो कुछ दूर पहुँच जाता है वह बारह उपवास का, जो बीच में पहुँच जाता है वह पंद्रह उपवास का, जो मंदिर के दर्शन करता है वह मासोपवास का, जो मंदिर के आँगन में प्रवेश करता है वह छह मास के उपवास का, जो द्वार में प्रवेश करता है वह वर्षोपवास का, जो प्रदक्षिणा देता है वह सौ वर्ष के उपवास का, जो जिनेन्द्रदेव के मुख का दर्शन करता है वह हजार वर्ष के उपवास का और जो स्वभाव से स्तुति करता है वह अनंत उपवास के फल को प्राप्त करता है। यथार्थ में जिनभक्ति से बढ़कर कोई उत्तम पुण्य नहीं है।।१७८-१८२।।
अत: जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करके अपने जन्म-जन्म के पापों को नष्ट करके असीम पुण्य का उपार्जन करना चाहिए।