001.सम्पादकीय
सम्पादकीय
जैन समाज की कुछ उच्चकोटि संस्थाओं में से दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान एक ऐसी संस्था है जहाँ से चतुर्मुखी कार्यकलापों का संचालन होता है। पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के द्वारा उसी संस्था के अन्तर्गत सन् १९७२ में ‘‘वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला’’ की स्थापना हुई, तब से उस ग्रंथमाला में लाखों की संख्या में छोटे-बड़े ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है।
ग्रंथमाला के प्रथम पुष्प के रूप में जिस प्रकार न्यायदर्शन के सर्वोच्च ग्रंथ ‘‘अष्टसहस्री’’ को प्रकाशित कर हम गौरवान्वित हुए हैं उसी प्रकार हमने षट्खंडागम ग्रंथ का प्रकाशन करके अप्रतिम गौरव का अनुभव किया है, क्योंकि यह सिद्धांत का सर्वोच्च ग्रंथ होने के साथ-साथ भगवान महावीर के शासन में प्रथम ग्रंथ के रूप में अवतरित हुआ है और एक हजार वर्ष के बाद अब इस सूत्र ग्रंथ पर प्रथम बार संस्कृत टीका लेखन का कार्य हुआ है।
षट्खंडागम सूत्रों के मूल रचयिता आचार्य श्री पुष्पदंत-भूतबलि एवं उसकी ‘‘धवला’’ नामक टीका को रचने वाले आचार्य श्री वीरसेन स्वामी के दर्शन तो हमें नहीं हो रहे हैं किन्तु उनके ज्ञान को सरलीकरण प्रक्रिया के द्वारा वर्तमान पीढ़ी तक पहुँचाने का श्रेय जिन गणिनी माताजी को प्राप्त हुआ है उनके दर्शन करने वाले हम सभी निश्चित ही सौभाग्यशाली हैं। इस बीसवीं शताब्दी के प्रथम दिगम्बर जैनाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज ने सर्वप्रथम इन सूत्र ग्रंथों को ताम्रपट्ट पर उत्कीर्ण करवाकर उन्हें स्थायित्व प्रदान किया, उनकी हिन्दी टीका लिखने हेतु अनेक विद्वानों को प्रेरित किया पुन: उनका ग्रंथरूप में प्रकाशन होकर जब विज्ञ पाठकों के समक्ष प्रस्तुतीकरण हुआ तो अनेक व्यक्तित्व सिद्धांत के मर्मज्ञ बन गये अत: आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज का उपकार भी वर्तमान युग कभी विस्मृत नहीं कर सकता है।
पूज्य माताजी कई बार बताया करती हैं कि मेरे गुरुदेव आचार्य श्री वीरसागर महाराज हमेशा षट्खंडागम गंथों का स्वाध्याय किया करते थे और कहा करते थे कि ‘‘कुछ प्रकरण इसमें ऐसे भी हैं जो ज्ञानावरण कर्म के मंदोदय के कारण नहीं भी समझ में आते हैं फिर भी उन्हें बार-बार पढ़ने से कर्मनिर्जरा तो होती ही है, इसलिए पढ़ना तो अवश्य चाहिए।’’
मैं समझता हूँ कि गुरु द्वारा प्रदत्त इन संस्कारों के कारण ही पूज्य माताजी को भी प्रारंभ से ही धवल, जयधवल, महाधवल आदि ग्रंथों का स्वाध्याय करते मैंने देखा पुन: उसी स्वाध्याय का प्रतिफल इस टीकाग्रंथ के रूप में फलीभूत हुआ है। अत: उनका भी यह उपकार साहित्यजगत् में युग-युग तक अविस्मरणीय रहेगा। इस ग्रंथ को प्रेस में देने से पूर्व जब जनवरी-फरवरी १९९८ में इसकी वाचना हुई तो मैंने कुछ दिन माताजी की संस्कृत टीका पढ़ी और अनुभव किया कि सम्यग्दर्शन, गुणस्थान, मार्गणा आदि विषयों को अनेक ग्रंथों के आधार से इस प्रकार स्पष्ट किया है कि प्रत्येक पाठक को शीघ्र समझ में आ सकता है। यद्यपि यह संस्कृत टीका अतीव सरल है तथापि संघस्थ आर्यिका चंदनामती जी ने उसका हिन्दी अनुवाद करके उसे प्रत्येक भव्यात्मा के लिए उपयोगी बना दिया है। अत: प्रस्तुत ग्रंथ में आचार्य श्री पुष्पदंत एवं भूतबलि महाराज द्वारा रचित मूलसूत्र सबसे बड़े अक्षरों में हैं पुन: उसके नीचे पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित संस्कृत की ‘‘सिद्धांतचिंतामणि’’ टीका दी गई है और उसके नीचे आर्यिका चंदनामती माताजी द्वारा लिखित शब्दश: हिन्दी टीका एवं भावार्थ, विशेषार्थ आदि हैं।
इस प्रकार गुरु-शिष्य इन दोनों के परिश्रम से समन्वित यह ग्रंथ आप सभी के सिद्धांतज्ञान को विकसित करे यही मेरी मंगलकामना है तथा पूज्य माताजी हमारी ग्रंथमाला को अपने इसी प्रकार के दिव्य पुष्पों से सुवासित करती रहें यही उनके श्रीचरणों में मेरी विनम्र प्रार्थना है।
षट्खण्डागम के इस प्रथम ग्रंथ का प्रथम संस्करण सन् १९९८ में प्रकाशित हुआ था, पुन: अब ११ वर्ष बाद द्वितीय संस्करण के प्रकाशन का संयोग बना है। इस मध्य द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ पुस्तक का प्रकाशन हुआ तथा पंचम आदि पुस्तकों के प्रकाशन का कार्य भी प्रगति पर चल रहा है।
इस संस्करण के प्रकाशन में नई कम्प्यूटर कम्पोजिंग करवाकर पुन: प्रूफ संशोधन का कार्य अत्यधिक सूक्ष्मता से किये जाने के कारण विलम्ब हुआ है। अब मुझे विश्वास है कि पाठकगण इसके स्वाध्याय से सरलरूप में सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त कर सकेगे, यही ग्रंथ प्रकाशन की सार्थकता है।
सन् - २००९