01.चौबीस ठाणा भूमिका
ॐ चउबीस ठाणा ॐ
प्रश्न:१- चउबीस ठाणा किसे कहते हैं?
उत्तर:- जहाँ गति मार्गणा आदि चौबीस स्थानों में जीव का विशेष वर्णन किया गया है, उन्हें चउबीस ठाणा कहते हैं ।
प्रश्न:२- चउबीस ठाणा का अध्ययन क्यों करना चाहिए?
उत्तर:- बोधिदुर्लभ भावना का चिन्तन करने के लिए चउबीस ठाणा का अध्ययन करना चाहिए । अपने उपयोग को चौबीस स्थानों के उत्तर भेदों में लगाना चाहिए और विचार करना चाहिए कि किस-किस स्थान पर रत्नत्रय प्राप्त किया जा सकता है । हम कितने-कितने नगण्य स्थानों को छोड्कर यहाँ आ गये हैं । सब कुछ अनुकूलता मिल जाने पर भी यदि हम रत्नत्रय धारण नहीं कर पाये तो सबकुछ व्यर्थ है । लोक भावना भाने के लिए भी ' चउबीस ठाणा' समझना चाहिए ।पापों, आर्त्त-रौद्र ध्यान और विषय-कषायों से बचने के लिए, आपत्ति के समय उपयोग को लगाने के लिए तथा पूर्वोपार्जित पापों का क्षय करने के लिए चउबीस ठाणा का अध्ययन करना चाहिए ।
प्रश्न:३-चौबीस स्थान कौन-कौनसे हैं?
उत्तर:- गइ इन्दिये च काये, जोगे वेदे कषाय भागे य ।
संजम दसण लेस्सा, भविया समझ सण्णि आहारे । ।गो. सा. जीव. गाथा 142
गुण जीवा पज्जती, पाणा सण्णा य मग्गणाओ ।
उवओगो विय कमसो, बीस तु परूवणा भणिया । । गोसा. जीव. गाथा 2
झाणा वि य पचा वि य, जाइ य कुल कोडि संजुया सब्बे,
गहाति येण भणिया, कमेण चउबीस ठाणाणि । ।
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्बक्ल, संज्ञी, आहारक, गुणस्थान, जीव समास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, उपयोग, ध्यान, आसव के प्रत्यय, जाति और कुल इस प्रकार चौबीस स्थान हैं । इन्हीं को हिन्दी में इस प्रकार पढ़ सकते हैं-
संयम दर्शन लेश्या भविजन, समकित सैनि अहारों में ।
गुणथानों में जीव समासों, पर्याप्ती में प्राणों में,
संज्ञा मार्गण उपयोगों में, बीस परूपण जानो ये । । 1 । ।
ध्यान कहे हैं प्रत्यय जाती, कुल कोटी को और कहे,
चार-बीस हैं थान इन्हीं में, जीव कथा को खास कहे ।
कम से इनको चौबिस ठाणा, में कहते हैं जिनवर जी,
प्रश्न4:_चौबीस स्थानों के उत्तर भेद कौन- कौन से हैं?
उत्तर:- चौबीस स्थानों के उत्तर भेद -
गति- चार : नरकगति, तिर्यंंचगति, मनुष्यगति और देवगति ।
इन्द्रिय-पाँच : एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ।
काय - छह : पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक तथा त्रस कायिक ।
योग - पन्द्रह : 4 मनोयोग, 4 वचनयोग, 7 काययोग
4 मनोयोग - सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग, अनुभयमनोयोग ।
4 वचनयोग - सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग, अनुभयवचनयोग ।
7 काययोग - औदारिक - औदारिक मिश्रकाययोग , वैक्रियिक -वैक्रियिकमिश्रकाययोग आहारक- आहारकमिश्रकाययोग तथा कार्मण काययोग ।
(5) वेद तीन: स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद ।
(6) कषाय पच्चीस: 4 अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान- माया-लोभ ।
4 अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ ।
4 प्रत्याख्यानावरण क्रोध- मान- माया-लोभ ।
4 सज्वलन क्रोध- मान-माया-लोभ ।
9 नोकषाय - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद ।
(ज्ञान आठ) 3 कुज्ञान-कुमति, कुहत, कुअवधि ।
5 ज्ञान- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन: पर्ययज्ञान, केवलज्ञान ।
(संयम-सात) सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, ख्तसाम्पराय, यथाख्यात, संयमासयम तथा असयम ।
(दर्शन-चार) चक्षुदर्शन, अचखुदर्शन, अवधिदर्शन तथा केवलदर्शन ।
(10) लेश्या-छह _ कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या ।
('1) अइव्यत्व-दो _ भव्य, अभव्य ।
(12) सम्ब?-छह क्षायिक, क्षयोपशम, उपशम, सासादन, मिश्र और मिथ्यात्व ।
(13) संज्ञी- दोसंज्ञी, असंज्ञी ।
(14) आहार-दो _ आहारक, अनाहारक ।
(15)गुणस्थान- मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत-सम्यग्दृष्टि, सयमसियम,प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तकवायवीतरागछदस्थ, क्षीणकषाय- वीतरागछद्मस्थ, सयोगकेवलीजिन तथा अयोगकेवलीजिन ।
(16) जीवसमास-उन्नीस पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, नित्यनिगोद और इतरनिगोद ये छहों न्ल्यू भी होते हैं और बादर भी होते हैं अत: 12+ सप्रतिष्ठित प्रत्येक+ अप्रतिष्ठित प्रत्येक 14+ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञीपचेन्द्रिय, असंज्ञीपचेन्द्रिय= 19
(17) पर्याप्ति-छह आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्चवास, भाषा तथा मनःपर्याप्ति ।
(18) प्राण-दस- 5 इन्द्रिय ( स्पर्शनादि), 3 बल (मन, वचन, काय), श्वासोच्चवास और आयु ।
(19) संज्ञा-चार-आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा और परिग्रह संज्ञा ।
(20) उपयोग-बारह-8 ज्ञानोपयोग-कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, मति, सुत, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल ज्ञानोपयोग ।
4 दर्शनोपयोग - चखुदर्शन, अचखुदर्शन, अवधिदर्शन तथा केवलदर्शनोपयले ।
(21) ध्यान-सोलह-4 आर्तध्यान - इष्ट वियोगज, अनिष्ट संयोगज, वेदना और निदान ।
4 रौद्रध्यान - हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी औरपरिग्रहानन्दी ।
4 धर्मध्यान - आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थान विचय ।
क्लक्रियाप्रतिपाति और झपरतक्रियानिवृत्ति ।
( 22) आसव प्रत्यय- 57_5 मिथ्यात्व-विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञान । 12 अविरति - 5 इन्द्रिय तथा मन को वश में करने तथा षदकाय के जीवों की रक्षा करने का संकल्प नहीं लेना ।
25 कषाय - अनन्तानुबन्धी आदि ।
15 योग - सत्य-मनोयोग| (23) जाति-84 लाख:
क्रम | जाति | आयु | 1 | नित्य निगोद | 7 लाख |
---|---|---|---|---|---|
2 | इतर निगोद | 7 लाख | |||
3 | पृथ्वीकायिक | 7 लाख | |||
4 | जलकायिक | 7 लाख | |||
5 | अग्निकायिक | 7 लाख | |||
6 | वायुकायिक | 7 लाख | |||
7 | वनस्पतिकायिक | 10 लाख | |||
8 | द्वीन्द्रिय | 2 लाख | |||
9 | त्रीन्द्रिय | 2 लाख | |||
10 | चतुरिन्द्रिय | 2 लाख | |||
11 | पंचेन्द्रिय तिर्यन्च | 2 लाख | |||
12 | नारकियोंं की | 4 लाख | |||
13 | देवों की | 4 लाख | |||
14 | मनुष्यों की | 14 लाख |
(24) कुल-1/2 199 लाख करोड :
क्रम | जाति | आयु |
---|---|---|
1 | प्रथ्वीकायिक | 22लाखकरोड़ |
2 | जलकायिक | 7 लाखकरोड़ |
3 | अग्रिकायिक | 3 लाखकरोड़ |
4 | वायुकायिक | 7 लाखकरोड़ |
5 | वनस्पतिकायिक | 28 लाखकरोड़ |
6 | द्वीन्द्रिय | 7 लाखकरोड़ |
7 | त्रीन्द्रिय | 8 लाखकरोड़ |
8 | चतुरिन्द्रिय | 9 लाखकरोड़ |
9 | जलचर | 12 1/2 लाखकरोड़ |
10 | नारकियोंं की | 4 लाख |
11 | नभचर | 12 लाखकरोड़ |
12 | नारकी | 25 लाखकरोड़ |
13 | देव | 26 लाखकरोड़ |
14 | मनुष्य | 14 लाखकरोड़[१] |
टिप्पणी
- ↑ मनुष्यों के 12 लाख करोड़ कुल होते है । (गोजी. 116)