01. परिचय
विषय सूची
प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी


दिगम्बर जैन परम्परा के साधु की चर्चा आते ही मन—मस्तिष्क में कठोर तपस्वी, त्यागर्मूित, संसार की समस्त क्रियाओं से उदासीन संत की छवि उभरती है। ऐसे मुनि या आर्यिका जिन्हें सब कुछ असार एवं त्याज्य दिखता है जो संसार को छोड़कर, खाने—पीने, पहनने—ओढ़ने, आने—जाने की सहज क्रियाओं में दर्जनों नहीं सैकड़ों प्रतिबन्ध लगा देते हैं, बस इसी भय से आज का युवा इन संतों से दूर भागता है। इन सबके विपरीत आधुनिक जीवन शैली, उसकी मजबूरियों, आवश्यकताओं एवं युवा मानसिकता को करीब से जानने एवं समझने वाली एक साध्वी, जिनको इस युग की महान साधिका, गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने स्वयं तराशा है, जो अपने सहज, सरल, सौम्य एवं मधुर व्यक्तित्व से युवा मन को आर्किषत करती हैं, जो अपनी करुणा, ममता एवं वात्सल्य से युवाओं के हृदय को झंकृत करती है एवं अपनी तर्वपूर्ण वैज्ञानिक विवेचनाओं से उनकी जिज्ञासाओं को तृप्त करती है ऐसी दिगम्बर जैन साध्वी का नाम है- प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी। प्रज्ञाश्रमणी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर चर्चा करने से पूर्व हम जाने इस परम्परा को। जब हम जैन परम्परा के इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें यही ज्ञात होता है कि प्रत्येक तीर्थंकर के समवसरण में हजारों, लाखों की संख्या में मुनि एवं आर्यिकायें रहीं हैं। यदि भगवान आदिनाथ के समवसरण में ३,५०,००० आर्यिकायें और ८४,००० मुनि थे तो भगवान महावीर के काल में ३६,००० आर्यिकायें और १४,००० मुनि थे, किन्तु राजनैतिक, सामाजिक परिस्थितियों के कारण यह संख्या निरन्तर घटती चली गई तथा १०वीं—११ वीं शताब्दी से लेकर १९ वीं शताब्दी तक मुनि परम्परा छिन्न—भन्न हो गई, किन्तु आश्चर्य तो तब होता है जब किसी भी आर्यिका द्वारा लिखा गया कोई भी ग्रंथ २० वीं शताब्दी ई. के पहले का प्राप्त नहीं होता है। अपवाद स्वरूप एक दो कन्नड़ रचनायें ही हैं। २० वीं सदी में चारित्र चक्रवर्ती, आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज ने विलुप्त होती मुनि परम्परा को पुनर्जीवित किया और गिरि कन्दराओं में निवास करने वाले, साधना के पथ पर अग्रसर किन्तु मूलाचार की व्यवस्थाओं से
अनभिज्ञ, कतिपय आत्मार्थी व्रती बन्धुओं को श्रमण परम्परा की आचार संहिता का बोध कराया। इन्हीं युग प्रधान आचार्य की शिष्या, किन्तु स्वयं के समाधि का संकल्प ले लेने के कारण उनके ही निर्देश पर पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से दीक्षित, कुमारी अवस्था से आर्यिका दीक्षा ग्रहण करने वाली इस युग की प्रथम आर्यिका हैं गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी। पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी ने कुमारी अवस्था में आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर एक अभिनव परम्परा का सूत्रपात किया। जिसके फलस्वरूप देश में आज शताधिक ऐसी आर्यिकायें हैं जिन्होंने गृहस्थाश्रम में प्रवेश के पूर्व ही संसार की असारता का ज्ञान प्राप्त कर आर्यिका के महाव्रतों को अंगीकार किया किन्तु इस परम्परा का सूत्रपात करने वाली गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रथम आर्यिका शिष्या होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ कु. माधुरी जैन को, जो आज प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी के रूप में अपनी ज्ञान रश्मियों से दिग्दिगन्त को आलोकित कर रही हैं। ऐसी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी के व्यक्तित्व और कृतित्त्व पर कुछ भी लिखना अत्यन्त दुष्कर है किन्तु प्रसंगोपात्त साधर्मी बन्धुओं के हित में किंचित परिचय प्रस्तुत करने की भावना से लिख रहा हूँ ।भाई- बहन
उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जनपद के ग्राम टिकैतनगर में अग्रवाल दिगम्बर जैन जाति निवास करती है। इसी जाति के गौरव, गोयल गोत्रीय श्रेष्ठि श्री छोटेलाल जी और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती मोहिनी देवी जी भी टिकैतनगर में ही निवास करती थी। आप श्री नौबतराय जैन के पुत्र श्री धन्य कुमार जैन के तीन पुत्रों, सर्वश्री बालचन्द, छोटेलाल एवं बब्बूमल में मंझोले थे। श्री छोटेलाल जी की कुल १३ संतानें हुई जिनके नाम क्रमश: निम्नवत् हैं।
- कुमारी मैना जैन—पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी (बाल ब्रह्मचारिणी)
- श्रीमती शांति देवी जैन, लखनऊ
- श्री कैलाश चन्द जैन सर्राफ,टिकैतनगर/लखनऊ
- सौ. श्रीमती देवी जैन, बहराइच
- कुमारी मनोवती जैन—चारित्रश्रमणी आर्यिकारत्न श्री अभयमती माताजी (समाधिस्थ)
- स्व. श्री प्रकाशचन्द जैन,टिकैतनगर/लखनऊ
- श्री सुभाषचन्द जैन,टिकैतनगर
- श्रीमती कुमुदनी देवी जैन, कानपुर
- श्री रवीन्द्र कुमार जैन—(बाल ब्रह्मचारी) (स्वस्ति श्री पीठाधीश कर्मयोगी रवीन्द्रर्कीित स्वामीजी)
- श्रीमती मालती जैन, दिल्ली
- श्रीमती कामिनी देवी जैन, दरियाबाद
- कुमारी माधुरी जैन—प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी (बाल ब्रह्मचारिणी)
- श्रीमती त्रिशला जैन, लखनऊ
एक ही परिवार से ३—३ आर्यिकायें बनना और एक भाई का १० प्रतिमा के व्रतों सहित पीठाधीश बनकर तीर्थों का संरक्षण एवं संचालन करते हुए कर्मयोगी की उपाधि प्राप्त करना यह सोचने को विवश करता है कि किन्हीं विशेष कारणों से परिवार विशेष को ही ऐसा सुयश प्राप्त होता है। यह धारणा और भी पुष्ट होती है जब हम पाते हैं कि माता मोहिनी देवी ने भी इस असार संसार को तिलांजलि देकर आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर स्वयं अपनी ही पुत्री के निर्देशन में आर्यिका रत्नमती के रूप में समाधि की सफल साधना की। ऐसे महान पुण्यशाली परिवार में १८ मई १९५८ तदनुसार ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या वीर निर्वाण संवत् २४८४ ( सन् १९५८ में ) में बारहवीं संतान के रूप में माधुरी का जन्म हुआ। जैन पुराणों का निरन्तर स्वाध्याय करने वाली माता मोहिनी ने आचार्य कुन्दकुन्द की माँ के समान माधुरी को भी बालपन में ही धर्म के संस्कार दे दिये थे ।
ब्रम्हचर्य व्रत एवं दीक्षा
माधुरी ने महज ११ वर्ष की उम्र में जयपुर (राज.) में २५ अक्टूबर १९६९ को ५ वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत एवं १३ वर्ष की आयु में सुगंध दशमी के पावन पर्व पर अजमेर की धर्मप्राण नगरी में आपने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया। कहते हैं पूत के पाँव पालने में ही नजर आने लगते हैं। अल्हड़ मस्त जवानी के जिन दिनों में बालिकायें खेलने—कूदने और मौज—मस्ती करने में मग्न रहती हैं तब माधुरी ब्रह्मचर्य के साथ—साथ अपने स्वाध्याय से मेघा को सँवारने में लगी रहती थी। लगभग १३ वर्षों की साधना के बाद जब १९८२ में जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन के निमित्त से पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी दिल्ली के मोरी गेट स्थित दिगम्बर जैन मंदिर में चातुर्मास कर रही थी, तब आपने दो प्रतिमा के व्रत धारण किये तथा अगले ५ वर्षों में ५ और प्रतिमाओं के व्रतों का धारण करने का संकल्प करते हुए १९८७ में सप्तम प्रतिमा के व्रत धारण किये। बहन माधुरी के मन में तो वैराग्य का भाव हिलोरे मार रहा था। ऐसे में उन्हें सप्तम प्रतिमा के व्रतों से कहाँ संतोष होने वाला था। १९६९ से लेकर १९८९ तक २० वर्षों में ब्रह्मचारिणी बनकर जिस प्रकार आपने संघ की सेवा की, गुरु मुख से चारों अनुयोगों के ग्रंथों का अध्ययन किया और कर्म सिद्धान्त के प्रति अपनी आस्था को बलवती करते हुए वैराग्य के भावों को पुष्ट किया, ऐसे उदाहरण विरले ही हैं। व्रतों का कठोरता से पालन करने/कराने में देश में विख्यात गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने अपनी इस शिष्या को जाँचा, परखा तथा सब दृष्टियों से योग्य पाये जाने पर श्रावण शुक्ला ग्यारस तदनुसार १३ अगस्त १९८९ को आर्यिका के महाव्रत प्रदान किये और इस प्रकार २० वर्षों की साधना के बाद गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी सदृश कुशल शिल्पी के मार्गदर्शन में माधुरी जगत् पूज्य आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी बन गई।
योजनाबद्ध ढंग से किया श्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता। जिस प्रकार गंगा के थपेड़ों से कंकर शंकर बन जाता है उसी प्रकार गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के कठोर अनुशासन और गहन अध्ययन की पाठशाला में माधुरी के ज्ञान में जो निखार आया वो आज चहुँ ओर प्रकट हो रहा है। अपने पूर्व नाम के अनुरूप उनकी वाणी में माधुर्य तो शुरु से ही था किन्तु ज्ञानमती माताजी के ज्ञान और चन्दना की शीतलता का परिपाक होने से एक ऐसा सुयोग बना कि आज भौतिकता की चकाचौंध में भटकता युवा चन्दनामती जी के पास अपनी ज्वलंत समस्याओं का शीतल समाधान पाने िखचा चला जाता है।
पच्चीस चातुर्मास
१९८९ से लेकर २०१३ तक के गणिनी ज्ञानमती माताजी के साथ सम्पन्न २५ (२५ वाँ चातुर्मास चल रहा है) चातुर्मास आर्यिका चन्दनामती माताजी के द्वारा की गई लम्बी—लम्बी पद यात्राओं की कहानी खुद ही कहते हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, दिल्ली आदि चार प्रान्तों में फैले इन वर्षायोग स्थलों की सूची जरा हम भी देखें—
क्रमांक | सन | स्थान |
---|---|---|
पहला चातुर्मास | १९८९ | जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर |
दूसरा चातुर्मास | १९९० | जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर |
तीसरा चातुर्मास | १९९१ | सरधना, जिला—मेरठ |
चौथा चातुर्मास | १९९२ | जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर |
पाचवाँ चातुर्मास | १९९३ | अयोध्या तीर्थ |
छठा चातुर्मास | १९९४ | टिकैतनगर, बाराबंकी |
सातवाँ चातुर्मास | १९९५ | जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर |
आठवाँ चातुर्मास | १९९६ | मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र |
नवाँ चातुर्मास | १९९७ | लाल मंदिर, चाँदनी चौक—दिल्ली |
दसवाँ चातुर्मास | १९९८ | जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर |
ग्यारहवाँ चातुर्मास | १९९९ | राजा बाजार, कनाट प्लेस—नई दिल्ली |
बारहवाँ चातुर्मास | २००० | कमल मंदिर, प्रीत विहार—दिल्ली |
तेरहवाँ चातुर्मास | २००१ | अशोक विहार, फेस—१—दिल्ली |
चौदहवाँ चातुर्मास | २००२ | प्रयाग—इलाहाबाद |
पन्द्रहवाँ चातुर्मास | २००३ | कुण्डलपुर, नालंदा |
सोलहवाँ चातुर्मास | २००४ | कुण्डलपुर, नालंदा |
सत्रहवाँ चातुर्मास | २००५ | जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर |
अठारहवाँ चातुर्मास | २००६ | जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर |
उन्नीसवाँ चातुर्मास | २००७ | जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर |
बीसवाँ चातुर्मास | २००८ | जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर |
इक्कीसवाँ चातुर्मास | २००९ | जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर |
बाइसवाँ चातुर्मास | २०१० | जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर |
तेइसवाँ चातुर्मास | २०११ | जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर |
चौबीसवाँ चातुर्मास | २०१२ | जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर |
पच्चीसवाँ चातुर्मास | २०१३ | जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर |
छब्बीसवाँ चातुर्मास | २०१४ | जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर |
सत्ताईसवां चातुर्मास | २०१५ | मांगीतुंगी- महाराष्ट्र |
अट्ठाईसवां चातुर्मास | २०१६ | ऋषभदेव उद्यान- मांगीतुंगी |
उनतीसवां चातुर्मास | २०१७ | पोदनपुर- मुम्बई (त्रिमूर्ति तीर्थ) |
तीसवां चातुर्मास | २०१८ | ऋषभदेवपुरम् - मांगीतुंगी |
इकतीसवां चातुर्मास | २०१९ | टिकैतनगर- उ०प्र०(जन्मभूमि) |
चातुर्मास से इतर अवधि में माताजी के छोटे—बड़े अनेक विहार होते रहते हैं। जैसे १९९५—९६ में जम्बूद्वीप से दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश होते हुए आप महाराष्ट्र गई तो वापसी में गुजरात, राजस्थान होकर दिल्ली पधारी एवं दिसम्बर २००७ तथा जनवरी २००८ की कड़कड़ाती सर्दी में माताजी उत्तर प्रदेश के बरेली जनपद में स्थित प्रसिद्ध अतिशय क्षेत्र अहिच्छेत्र पाश्र्वनाथ, गुरु माँ के साथ गर्इं और वहाँ महामस्तकाभिषेक के कार्यक्रम को अपना सानिध्य प्रदान किया। तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय, मुरादाबाद में नवनिर्मित जिनमंदिर के वेदी प्रतिष्ठा महोत्सव में सान्निध्य प्रदान करने हेतु पूज्य माताजी (ससंघ) मार्च/अप्रैल २०१२ में हस्तिनापुर से विहार कर मुरादाबाद गर्इं। इस अवसर पर तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय द्वारा विशेष दीक्षांत समारोह आयोजित कर ८ अप्रैल २०१२ को पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी को डी.लिट्. एवं आर्यिका श्री चंदनामती माताजी को पीएच. डी. की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया। पूज्य माताजी के व्यक्तित्व के विशिष्ट पहलुओं तथा साहित्यिक एवं सामाजिक अवदान के बारे में लिखना अत्यन्त दुष्कर है लेकिन पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के संघ के साथ १९८१ से अनवरत जुड़े होने के कारण मैंने आपके दोनों रूपों माधुरी जी और चन्दनामती माताजी को नजदीक से देखा है। यह संभव है कि अपनी सीमित शक्तियों के कारण मैं उनके व्यक्तित्व की ऊँचाईयों की थाह न ले पाया हूँ लेकिन जो भी मैंने देखा, जाना और समझा उसे मैं कुछ बिन्दुओं में समाहित करने का प्रयास कर रहा हूँ। कतिपय प्रमुख बिन्दु निम्नवत् हैं—








आर्ष परम्परानुयायी
बहुत कुछ लिखने के बावजूद आचार संहिता में बहुत सी बातें अलिखित रह जाती हैं। दुनिया का कोई भी संविधान सभी दृष्टियों से न कभी पूर्ण बन पाया है एवं न बन पायेगा। यही कारण है कि अनेक निर्णय परम्परा के आधार पर लिये जाते हैं। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज की परम्परा में दीक्षित होने के कारण आप अपनी इस निष्कलंक, विश्वविख्यात गुरु परम्परा का सदैव गौरव पूर्वक स्मरण करती हैं तथा गुरु परम्परा द्वारा स्थापित रीतियों, परम्पराओं का अनुसरण भी करती हैं। गुरूणां गुरु आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज द्वारा संपोषित आगमानुकूल पूजन पद्धति, पंचामृत अभिषेक, स्त्री प्रक्षाल आदि का आप समर्थन करते हुए आर्ष परम्परा के विकास एवं संरक्षण हेतु प्रयत्नशील रहती हैं। जिन शासन के रक्षक देवी—देवताओं का यथोचित सत्कार एवं सम्मान आपकी परम्परा द्वारा विकसित सभी तीर्थों पर किया जाता है। यही कारण है आपकी गुरु माँ की प्रेरणा से विकसित एवं संरक्षित तीर्थों जम्बूद्वीप, मांगीतुंगी, अयोध्या, तपस्थली प्रयाग, जन्मभूमि कुण्डलपुर, काकन्दी आदि में क्षेत्रपाल बाबा एवं पद्मावती माता, लक्ष्मी एवं सरस्वती माता तथा अन्य यक्ष—यक्षिणियों की र्मूितयाँ स्थापित हैं एवं श्रावकों द्वारा उनकी सतत अभ्यर्थना की जाती है।
आशुकवियित्री
पूज्य बड़ी माताजी द्वारा किसी भी र्धािमक आयोजन की प्रेरणा दी जाये, आर्यिका चन्दनामती जी तत्काल उस पर भजन बना देती हैं। इन भजनों में जहाँ एक ओर गेयता होती है वहीं दूसरी ओर इनमें धर्म, दर्शन, अध्यात्म एवं इतिहास के तत्व छुपे रहते हैं। जन—जन में प्रचार या जुड़ाव तो होता ही है। भजन, आरती, चालीसा एवं पूजा बनाने में आपको इतना आनन्द आता है कि वे इसमें डूब जाती हैं। पौराणिक कथानकों एवं प्रथमानुयोग के प्रसंगों का विस्तृत ज्ञान तथा करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग की सूक्ष्म समझ होने के कारण उनके द्वारा रचे गये भजन, पूजायें आदि जैन साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इनमें साहित्यिक सौष्ठव एवं विषय का गाम्भीर्य समान रूप से होता है। यहाँ मैं आपके द्वारा रचित दो लोकप्रिय भजन उद्धृत कर रहा हूँ ।
तर्ज—सज धज कर .............
तेरी चंदन सी रज में, इक उपवन खिलाया है।
कुंडलपुर के महावीरा, तेरा महल बनाया है।।
जन्में जहां, खेले जहां, त्रिशला माँ के नन्दन।
उस कुंडलपुर की माटी का, सचमुच कण—कण चन्दन।।
चन्दन सी उस माटी को, सिर पर लगाया है।
कुंडलपुर के महावीरा, तेरा महल बनाया है।।१।।
सोने का नंद्यावर्त महल, सिद्धारथ जी का था।
मणियों के पलंग पर त्रिशला ने, सपनों को देखा था।
उन सपनों को सच्चे करके, फिर से दिखाया है
वुंडलपुर के महावीरा, तेरा महल बनाया है।।२।।।
प्राचीन इक मन्दिर प्रभू का, कुंडलपुर में है।
नालन्दा के नजदीक ‘चन्दना’, दर्शन मिलते हैं।।
भक्तों के भावों को हमने, प्रभु तक पहुँचाया है।
तर्ज—कभी राम बनके, .............
मुनिराज बनके, जिनराज बनके, चले आए, महावीर चले आए।।
कौशाम्बी की है एक घटना।
जहाँ बेड़ियों में जकड़ी थी चन्दना।।
उद्धार करने, संकट टालने उसके, चले आए, महावीर चले आए।।१।।
देखा चन्दना ने जब महावीर को।
आंसू भरकर पुकारा उसने वीर को।।
आवाज सुनके, बंधन काटने उसके, चले आए, महावीर चले आए।।२।।
टूटी बेड़ियाँ चन्दना की तत्क्षण।
ज्यों ही हुआ महावीर का दर्शन।।
वीतराग बनके, उसका भाग्य बनके, चले आए महावीर चले आए।।३।।
श्रद्धा भक्ति से पड़गाया प्रभु को।
दिया चन्दना ने आहार प्रभु को।।
चमत्कार करने, आहार करने, चले आए, महावीर चले आए।।४।।
गणिनी ज्ञानमती माता ने बताया।
इसी इतिहास को दर्शाया।।
चिरस्थाई बनके, तीरथ धन्य करने, चले आए, महावीर चले आए।।५।।
जिला कौशाम्बी में तीर्थ प्यारा।
‘चन्दनामती’ प्रभाषगिरि न्यारा।।
प्रभावी वक्ता
आगम ग्रन्थों तथा सम—सामयिक साहित्य के गहन अध्ययन से प्राप्त निष्कर्षों एवं स्वरचित भजनों / मुक्तकों से युक्त आपके प्रवचन/ उद्बोधन युवा पीढ़ी को बरबस अपनी ओर आर्किषत करते हैं। बड़ी से बड़ी सभा को मंत्रमुग्ध करने की आपमें अपूर्व क्षमता है। सभा में श्रोताओं से जीवन्त संवाद से आप युवावर्ग में बहुत लोकप्रिय है एवं वे सुरुचिपूर्वक आपकी सभा में आकर ज्ञान लाभ लेते हैं। आपके प्रवचन इतने सटीक, सुसंगत एवं क्रमबद्ध होते हैं कि प्रवचनोपरान्त प्रत्येक श्रोता के पास सोचने, विचारने एवं आचरण करने हेतु कुछ न कुछ सामग्री होती हैं। विषय की सरलता, लयबद्धता एवं प्रभावोत्पादकता आपकी विशेषता हैं।
कुशल लेखिका
काव्य रचना आपकी मौलिक प्रतिभा है फलत: आपकी कृतियों में भजन संग्रह, आरती संग्रह, चालीसा संग्रह, पूजाओं का बाहुल्य है तथापि आपने कुछ अत्यन्त गम्भीर प्रकृति के कार्य किये हैं जिनमें सर्वोपरि है सिद्धान्त ग्रंथ षट्खण्डागम की गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी कृत सिद्धान्त चिन्तामणि शीर्षक संस्कृत टीका की हिन्दी टीका। षट्खण्डागम की धवला टीका के ५ खण्डों को समाहित करने वाली १६ पुस्तकों की माताजी कृत सिद्धान्त चिन्तामणि शीर्षक संस्कृत टीका तो प्रकाशित हो चुकी है किन्तु आपके द्वारा की जा रही हिन्दी टीका का कार्य भी प्रगति की ओर है। सम सामयिक विषयों पर आपके दर्जनों लेख तथा कई शोधपूर्ण आलेख भी विविध पत्र—पत्रिकाओं में छप चुके हैं।
सिद्धहस्त सम्पादिका
संस्थान के पीठाधीश स्वस्ति श्री कर्मयोगी रवीन्द्रर्कीित स्वामीजी के सम्पादकत्व में निकलने वाली सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका के कुशल संयोजन में आपका सहयोग तो रहता ही है आर्यिका रत्नमती अभिनन्दन ग्रंथ, आचार्य वीरसागर स्मृति ग्रंथ, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ, गणिनी ज्ञानमती गौरव ग्रंथ, भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर अभिवन्दन ग्रंथ, भगवान पाश्र्वनाथ तृतीय सहस्राब्दि ग्रंथ आपकी सम्पादन कला में प्रावीण्य की कहानी कहते हैं। मार्च २००८ में विमोचित चारित्रश्रमणी आर्यिका श्री अभयमती—जीवनयात्रा को आपके द्वारा ही संवारा गया है। भगवान महावीर हिन्दी—अंग्रेजी जैन शब्दकोश की वाचना में मैंने स्वयं पूज्य माताजी की सूक्ष्म दृष्टि, ज्ञान की पिपासा एवं अध्ययन के गाम्भीर्य का साक्षात्कार किया हैं आगमिक सन्दर्भों की आधुनिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्या में आपका प्रावीण्य श्लाघनीय है ।
सफल ध्यान शिक्षिका
शिक्षा, नौकरी एवं व्यवसाय के तनावों के कारण वर्तमान पीढ़ी तनावग्रस्त है। अव्यावहारिक लक्ष्यों की प्राप्ति की अंधी दौड़ में शामिल हमारे अनेक भाई/बहन अवसाद से ग्रसित रहते हैं। तनाव एवं अवसाद को दूर करने तथा अनेक शारीरिक, मानसिक रोगों से मुक्ति दिलाने में सक्षम आचार्य शुभचन्द्र आदि महान जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित जैन ध्यान/योग पद्धति से प्रेरित ध्यान साधना पद्धति का विकास आपके द्वारा किया गया है। प्रतिदिन प्रात: इस पद्धति से ध्यान करने से पूरा दिन चित्त प्रसन्न एवं शरीर स्वस्थ रहता है। प्रात:कालीन ध्यान की यह कक्षा युवाओं के विशेष आकर्षण का केन्द्र है। युवा ही क्यों, जो भी एक बार इसमें आया इसका मुरीद बन गया ।
दूरदृष्टि सम्पन्न संघ संचालिका
पूज्य गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माताजी के संघ में वर्तमान में आपके अतिरिक्त आर्यिका श्री सुव्रतमती माताजी, आर्यिका श्री सुदृढ़मती माताजी, आर्यिका श्री स्वर्णमती माताजी, क्षुल्लिका श्री पुण्यमती जी, ब्र. राजेश जैन, ब्र. बीना जैन, ब्र. सारिका जैन, ब्र. इन्दु जैन, ब्र. अलका जैन, ब्र. प्रीति जैन, ब्र. मंजू जैन, ब्र. दीपा जैन, ब्र. बाला जैन, ब्र. कुसुम जैन एवं ब्र. गीताबाई जैन आदि भी साधनारत हैं। इतने विशाल संघ का पूज्य माताजी की आज्ञा एवं आदेश के अनुरूप शिक्षण, प्रशिक्षण, संचालन एवं नियंत्रण करना आपके प्रबन्ध कौशल तथा संघ संचालन में निपुणता को व्यक्त करता है।
आपकी इन विशेषताओं के कारण उनका सामाजिक एवं साहित्यिक अवदान अत्यन्त विशिष्ट हो गया है। सामाजिक पुनर्रचना के अनुष्ठान में आपने केन्द्र बिन्दु बनाया युवा पीढ़ी को। दीक्षा पूर्व आपने अपनी शास्त्र सभाओं एवं शिक्षण—प्रशिक्षण शिविरों के माध्यम से युवाओं को संस्कारित करने तथा उनमें धर्म के प्रति व्याप्त भ्रांतियों को दूर करने का महती कार्य किया।आज पूरे देश में इस बात की ख्याति है कि माताजी (पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी) जिस काम की प्रेरणा देती हैं वह पूर्ण होता है। वे किसी काम को अधूरा नहीं छोड़ती हैं। वास्तव में माताजी की योजनाओं की पूर्णता के मूलाधार चार स्तम्भ रहे हैं ।
- परमपूज्य, गणिनीप्रमुख, श्री ज्ञानमती माताजी (स्वयं)
- पूज्य, प्रज्ञाश्रमणी, आर्यिकाश्री चन्दनामती माताजी
- पूज्य, (समाधिस्थ) क्षुल्लकरत्न श्री मोतीसागर जी
- स्वस्ति श्री कर्मयोगी पीठाधीश रवीन्द्रर्कीित स्वामीजी (पूर्वनाम कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्रकुमार जैन)
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