01. विवाह-एक गृहस्थ धर्म की साधना है
विवाह-एक गृहस्थ धर्म की साधना है
नीति—संपोषित रचना को
समर्पित,
विवाह संस्था;
जो
मात्र एक सामाजिक क्रांति नहीं,
सृजन का उपक्रम नहीं,
प्रत्युत है ;
भोग से योग की ओर—
साधना का प्रस्थान बिन्दु भी;
समर्पित हैं इस गार्हस्थ साधना
के कतिपय बिंब
ऊँकारं विन्दु संयुक्तं नित्यं ध्यायंति योगिन:।
कामदं मोक्षदं चैव ऊँकाराय नमो नम:।।
पांयन नूपुर मंजु बजें धुनि विंकिन की कटि में सुखदाई।
सांवरे अंग लसै पठ पीत हिये हुलसै बनमाल सुहाई।।
माथे किरीट, बड़े दृग चंचल, मंद हंसी, मुख—चंद जुन्हाई।
जय जग—मंदिर—दीपक सुन्दर, श्री ब्रज दूलह देव सहाई।।
रामसरिस बरु दुलहिन सीता। समधी दसरथ जनक पुनीता।
सुबि अस ब्याहु सगुन सब नाचें। अब किन्हें विरंचि हमें सांचे।।
बाजहि बजाने विविध प्रकारा। नम अरु नगर सुमंगल चारा।
गान विसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर—नारी।।