032.- तृतीय महाधिकार - देवगति में गुणस्थान व्यवस्था......
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तृतीय महाधिकार - तथैव रत्नत्रयपूत्त्र्यर्थं भावनापि भाव्यते-
प्रोद्भूते शिशिरे चतुष्पथपदं प्राप्ता: स्थितिं कुर्वते।।
ये तेषां यमिनां यथोक्ततपसां ध्यानप्रशान्तात्मनां।
मार्गे संचरतो मम प्रशमिन: काल: कदा यास्यति।।
इत्थं भावनां भावयित्वा मनुष्यजन्म सफलीकर्तव्यमस्माभिरेष एवाभिप्राय:।
एवं मनुष्यगतौ चतुर्दशगुणस्थान प्रतिपादनत्वेन एकं सूत्रं गतम्।
अधुना गतिमार्गणावयवभूतदेवगतौ गुणस्थानमार्गणार्थं सूत्रावतारो भवति-
देवा चदुसु ट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति।।२८।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-देवा चदुसु ट्ठाणेसु अत्थि-देवाश्चतुर्षु गुणस्थानेषु सन्ति। कानि तानि इति चेत् ? मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति-मिथ्यादृष्टि: सासादनसम्यग्दृष्टि: सम्यग्मिथ्यादृष्टि: असंयतसम्यग्दृष्टिश्चेति।
कश्चिदाशंकते-अथ स्याद् यासु याभिर्वा जीवा: मृग्यन्ते ता: मार्गणा इति प्राङ्मार्गणाशब्दस्य निरुक्तिरुक्ता, आर्षे च इयत्सु गुणस्थानेषु नारका: सन्ति, तिर्यञ्च: सन्ति, मनुष्या: सन्ति, देवा: सन्तीति गुणस्थानेषु मार्गणा अन्विष्यन्ते, अतस्तद्व्याख्यानमार्षविरुद्धमिति ?
आचार्यदेव: समाधत्ते-नैष दोष: ‘‘णिरय-गदीए णेरईएसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया।’’ इत्यादि भगवद्-भूतबलि-भट्टारकमुखकमलविनिर्गतगुण-संख्यादि-प्रतिपादकसूत्राश्रयेण तन्निरुत्तेरवतारात्।
कथमनयोर्भूतबलि-पुष्पदन्तवाक्ययोर्न विरोध: इति चेत् ?
न विरोध:।
कथमिदं तावत् ?
निरूप्यते। न तावदसिद्धेर्न असिद्धे वासिद्धस्यान्वेषणं सम्भवति, विरोधात्। नापि सिद्धे सिद्धस्यान्वेषणम्, तत्र तस्यान्वेषणे फलाभावात्। तत: सामान्याकारेण सिद्धानां जीवानां गुणसत्त्वद्रव्यसंख्यादिविशेषरूपेणासिद्धानां त्रिकोटिपरिणामात्मकानादिबन्धनबद्धज्ञानदर्शनलक्षणात्मास्तित्वान्यथानुपपत्तित: सामान्याकारेणावगतानां गत्यादीनां मार्गणानां च विशेषतोऽनवगतानामिच्छात: आधाराधेयभावो भवतीति नोभयवाक्ययोर्विरोध:।
एष अभिप्राय:-श्रीमदाचार्यपुष्पदन्तेन गुणस्थानानामाधारं कृत्वा मार्गणाया: प्रतिपादनं कृतं। तथा श्रीमदाचार्यभूतबलिना अग्रे मार्गणानामाधारं कृत्वा गुणस्थानानां प्रतिपादनं कृतं अतस्तयोद्र्वयोराचार्ययो-र्वाक्ययोर्नास्ति विरोध:।,
इसी प्रकार से रत्नत्रय पूर्ति की भावना भी भाई जाती है-
श्लोकार्थ—जो योगीश्वर ग्रीष्म ऋतु में पहाड़ के अग्रभाग में स्थित शिला के ऊपर ध्यानरस में लीन होकर रहते हैं तथा वर्षाकाल में वृक्षों के मूल में बैठकर ध्यान करते हैं और शरदऋतु में चौड़े मैदान में बैठकर ध्यान लगाते हैं शास्त्र के अनुसार तप के धारी तथा ध्यान से जिनकी आत्मा शान्त हो गई है ऐसे उन योगीश्वरों के मार्ग में गमन करने के लिए मुझे भी कब वह समय मिलेगा ? ऐसी भावना भाकर हम लोगों को अपना मनुष्य जन्म सफल करना चाहिए यह अभिप्राय है। इस प्रकार मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों के प्रतिपादन की मुख्यता से एक सूत्र पूर्ण हुआ।
अब गतिमार्गणा के अवयवभूत देवगति में गुणस्थान का अन्वेषण करने हेतु सूत्र का अवतार होता है-
सूत्रार्थ—
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में देव पाये जाते हैं।।२८।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका—देव चार गुणस्थानों में पाये जाते हैं।
प्रश्न—वे चार गुणस्थान कौन से हैं ?
उत्तर—मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि ये चार गुणस्थान देवों के होते हैं।
यहाँ कोई शंका करता है-जिनमें अथवा जिनके द्वारा जीवों का अन्वेषण किया जाता है उन्हें मार्गणा कहते हैं, इस प्रकार पहले मार्गणा शब्द की निरुक्ति कह आए हैं और आर्ष में तो इतने गुणस्थानों में नारकी होते हैं, इतने में तिर्यंच होते हैं, इतने में मनुष्य होते हैं और इतने में देव होते हैं इस प्रकार गुणस्थानों में मार्गणा का अन्वेषण किया जा रहा है। इसलिए उक्त प्रकार से मार्गणा की निरुक्ति करना आर्षविरुद्ध है ? इस शंका का आचार्यदेव समाधान देते हैं-
यह कोई दोष नहीं है क्योंकि ‘नरकगति में नारकियों में मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाण से कितने हैं’ इत्यादि रूप से भगवान् भूतबली भट्टारक के मुखकमल से निकले हुए गुणस्थानों का अवलम्बन लेकर संख्या आदि के प्रतिपादक सूत्रों के आश्रय से उक्त निरुक्ति का अवतार हुआ है।
शंका—तो भूतबलि और पुष्पदंत के इन वचनों में विरोध क्यों नहीं माना जाता है ?
समाधान—उनके वचनों में विरोध नहीं है। यदि पूछो किस प्रकार ? तो आगे इसी बात का निरूपण करते हैं कि असिद्ध के द्वारा असिद्ध में असिद्ध का अन्वेषण करना तो संभव नहीं है क्योंकि इस तरह अन्वेषण करने में तो विरोध आता है। उसी प्रकार सिद्ध में सिद्ध का अन्वेषण करना भी उचित नहीं है क्योंकि सिद्ध में सिद्ध का अन्वेषण करने पर कोई फल नहीं है इसलिए स्वरूप सामान्य की अपेक्षा से सिद्ध किन्तु गुणसत्त्व अर्थात् गुणस्थान, द्रव्यसंख्या आदि विशेषरूप से असिद्ध जीवों का तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप त्रिकोटि से परिणमनशील अनादिकालीन बंधन से बँधे हुए तथा ज्ञान और दर्शन लक्षण स्वरूप आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि अन्यथा नहीं हो सकती है इसलिए सामान्यरूप से जानी गई और विशेषरूप से नहीं जानी गई ऐसी गति आदि मार्गणाओं का इच्छा से आधार-आधेय भाव बन जाता है उसी प्रकार जब मार्गणाएँ विवक्षित होती हैं तब वे आधार भाव को प्राप्त हो जाती हैं और गुणस्थान आधेयपने को प्राप्त होते हैं इसलिए भूतबलि और पुष्पदंत आचार्यों के वचनों में कोई विरोध नहीं समझना चाहिए।
यहाँ अभिप्राय यह है कि आचार्य श्री पुष्पदंत स्वामी ने गुणस्थानों को आधार बनाकर मार्गणाआें का प्रतिपादन किया है तथा श्री भूतबलि आचार्य ने आगे मार्गणाओं को आधार बनाकर गुणस्थानों का प्रतिपादन किया है अत: दोनों के कथन में कोई विरोध नहीं है।
देवगतौ अपर्याप्तकाले तृतीयं मिश्रगुणस्थानं नास्ति
एवं देवगतौ गुणस्थानव्यवस्थाकथनत्वेन एकं सूत्रं गतम्।
संप्रति पूर्वसूत्रेषु कथितार्थविशेषप्रतिपादनार्थं चत्वारि सूत्राणि, तेषु प्रथमसूत्रावतारो भवति-
तिरिक्खा सुद्धा एइंदियप्पहुडि जाव असण्णि-पंचिंदिया त्ति।।२९।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-एकमिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रिया:। प्रभृतिरादि:, एकेन्द्रियान् प्रभृति कृत्वा। असंज्ञिनश्च ते पंचेन्द्रियाश्च असंज्ञिपञ्चेन्द्रिया:। यत्परिमाणमस्येति यावत्। यावदसंज्ञिपंचेन्द्रिया: शुद्धा: तिर्यञ्च:।
तिर्यक्षु शुद्धा: तिर्यञ्च: कथमेतत् ?
यदि एवम् न अकथयिष्यत् तर्हि नैतत् ज्ञायेत यत् तिर्यग्गतौ एव एकेन्द्रियादयोऽसंज्ञिपंचेन्द्रियपर्यंता वर्तन्ते नान्यत्र गतिषु। अतएव एतत्सूत्रावतारो जात:।
अथासाधारणतिरश्च: प्रतिपाद्य साधारणतिरश्चां प्रतिपादनार्थं उत्तरसूत्रावतारो भवति-
तिरिक्खा मिस्सा सण्णि-मिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति।।३०।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-तिरिक्खा मिस्सा-तिर्यञ्च: मिश्रा: सण्णिमिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति-संज्ञि-मिथ्यादृष्टिप्रभृति यावत् संयतासंयताश्चेति।
तिरश्चां अन्यै: सह मिश्रणं कथमवगम्यते ?
गुणस्थानसादृश्यापेक्षया एवावगम्यते। तद्यथा-मिथ्यादृष्ट्यादि असंयतसम्यग्दृष्टिपर्यंतगुणस्थानै: गतित्रयगतजीवसाम्यात्तैस्ते मिश्रा:। संयमासंयमगुणस्थानेन मनुष्यै: सह साम्यात् तिर्यञ्चो मनुष्यै: सहैकत्वमापन्ना: इति ज्ञातव्यं भवति।
इदानीं मनुष्याणां गुणस्थानापेक्षया सादृश्यासादृश्यप्रतिपादनार्थं उत्तरसूत्रावतार: क्रियते श्रीमत्पुष्पदन्ताचार्येण-
मणुस्सा मिस्सा मिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति।।३१।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-मणुस्सा मिस्सा-मनुष्या: मिश्रा:, मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति-मिथ्यादृष्टिप्रभृति यावत् संयतासंयता: इति। आदितश्चतुर्षु गुणस्थानेषु ये मनुष्यास्ते मिथ्यात्वादिभिश्चतुर्भि-र्गुणस्थानैस्त्रिगतिजीवै: समाना:, संयमासंयमेन तिर्यग्भि: सामना: इति ज्ञातव्या भवन्ति।
पुनरपि शुद्धमनुष्यप्रतिपादनार्थं सूत्रावतारो भवति-तेण परं सुद्धा मणुस्सा।।३२।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-तेण परं-तेन परं-पंचमगुणस्थानात् परं सुद्धा मणुस्सा-शुद्धा: मनुष्या: शेषगुणस्थानानां मनुष्यगतिव्यतिरिक्तगतिषु असंभवात् मनुष्येषु एव संभवंति अत: उपरितनगुणस्थानै: मनुष्या: न कैश्चित् समाना: अतएव शुद्धा गीयन्ते। अस्मिन्ननादिसंसारे चतुर्गतिषु एका मनुष्यगतिरेव मोक्षं प्रापयितुं सक्षमास्ति साक्षादिति। एतेन सप्तधातुभृतमलिनशरीरेण नश्वरक्षणभंगुरेण च निर्मलोऽविनश्वर: आत्मा प्रकटीकर्तव्य:। किंच, व्यवहार-निश्चयरत्नत्रयसाधनभूतमेतदेवशरीरमितिज्ञातव्यं भवद्भि:।
एवं चतुर्गतिस्वरूपं तासां गुणस्थानव्यवस्थापरं सूत्रपंचकं, पुनश्च तिर्यग्मनुष्याणां समानासमानप्रतिपादन-परत्वेन सूत्रचतुष्टयं इति प्रथमाधिकारेण नवसूत्राणि गतानि।
इति श्रीषट्खंडागमप्रथमखंडे गणिनीज्ञानमतीकृत-सिद्धान्तचिंतामणिटीकायां गतिमार्गणानाम प्रथमोऽधिकार: समाप्त:।
देवगति में अपर्याप्त काल में तृतीय मिश्र गुणस्थान नहीं होता है तथा इस गुणस्थान में मरण भी संभव नहीं है ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार देवगति में गुणस्थान कथन की मुख्यता से एक सूत्र पूर्ण हुआ।
अब पूर्व सूत्रों में कहे गये अर्थ के विशेष प्रतिपादन करने के लिए आगे चार सूत्र हैं उनमें से प्रथम सूत्र का अवतार होता है-
सूत्रार्थ—
एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव शुद्ध तिर्यंच हैं।।२९।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका—एक ही इंद्रिय है जिनके वे एकेन्द्रिय कहलाते हैं। प्रभृति का अर्थ आदि है अर्थात् ‘‘एकेन्द्रियों को आदि में करके’’ ऐसा अर्थ है। जो असंज्ञी होते हुए पंचेन्द्रिय होते हैं उन्हें असंज्ञी पंचेन्द्रिय कहते हैं। जिसका जितना परिमाण होता है उसके उस परिमाण को प्रगट करने के लिए ‘यावत्’ शब्द का प्रयोग होता है। इस प्रकार असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव शुद्ध तिर्यंच होते हैं। तिर्यंचों में शुद्ध तिर्यंच होते हैं ऐसा क्यों कहा ?
यदि ऐसा नहीं कहा जाता तो यह ज्ञात नहीं हो पाता कि तिर्यंच गति में ही एकेन्द्रिय को आदि लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव होते हैं, अन्य गतियों में ये जीव नहीं होते हैं। इसीलिए इस सूत्र का अवतार हुआ है।
अब असाधारण (शुद्ध) तिर्यंचों का प्रतिपादन कर साधारण (मिश्र) तिर्यंचों के प्रतिपादन करने के लिए उत्तर सूत्र का अवतार होता है-
सूत्रार्थ—
संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तिर्यंच मिश्र होते हैं।।३०।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका—तिर्यंच मिश्र होते हैं अर्थात् संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थान पर्यन्त तिर्यंच मिश्र होते हैं। तिर्यंचों का अन्य गति वाले जीवों के साथ मिश्रण कैसे जाना जाता है ?
गुणस्थान के सादृश्य की अपेक्षा ही उनका मिश्रण जाना जाता है। वह इस प्रकार है-मिथ्यादृष्टि आदि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि पर्यन्त गुणस्थानों के द्वारा तीन गति में रहने वाले जीवों के साथ समानता है इसलिए वे जीव मिश्र कहलाते हैं। संयमासंयम गुणस्थान के द्वारा तिर्यंचों की मनुष्यों के साथ समानता होने से तिर्यंच मनुष्यों के साथ एकत्व को प्राप्त हुए हैं ऐसा जानना चाहिए।
अब मनुष्यों की गुणस्थानों के द्वारा समानता और असमानता का प्रतिपादन करने के लिए आचार्य श्री पुष्पदंत स्वामी द्वारा आगे का सूत्र अवतरित होता है-
सूत्रार्थ—
मिथ्यादृष्टियों से लेकर संयतासंयत तक के मनुष्य मिश्र हैं।।३१।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका—मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत पर्यन्त जितने मनुष्य हैं वे सभी मिश्र हैं। आदि के चार गुणस्थानों में जो मनुष्य हैं वे मिथ्यात्व आदि चार गुणस्थानों की अपेक्षा तीन गति के जीवों के साथ समान हैं और संयमासंयम गुणस्थान की अपेक्षा तिर्यंचों के साथ समान हैं ऐसा ज्ञातव्य है। पुनरपि शुद्ध मनुष्यों का प्रतिपादन करने के लिए सूत्र का अवतार होता है-
सूत्रार्थ—
पाँचवें गुणस्थान से आगे शुद्ध (केवल) मनुष्य हैं।।३२।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका—उससे आगे अर्थात् पंचमगुणस्थान से आगे शुद्ध मनुष्य होते हैं। प्रारंभ के पाँच गुणस्थानों को छोड़ कर शेष गुणस्थान मनुष्यगति के बिना अन्य तीन गतियों में नहीं पाये जाते हैं इसलिए शेष गुणस्थान मनुष्यों में ही संभव हैं। अत: छठवें आदि ऊपर के गुणस्थानों की अपेक्षा मनुष्य अन्य तीन गति के किन्हीं जीवों के साथ समानता नहीं रखते हैं इसलिए वे शुद्ध कहे जाते हैं। इस अनादि संसार में चारों गतियों में एक मनुष्यगति ही मोक्ष प्राप्त कराने में साक्षात् रूप से सक्षम है। इस सप्तधातु से भरे मलिन एवं क्षणभंगुर शरीर के द्वारा निर्मल, अविनश्वर आत्मा को प्रकट करना चाहिए क्योंकि व्यवहार और निश्चय रत्नत्रय का साधनभूत यही शरीर है ऐसा आप लोगों के लिए जानने योग्य है।
इस प्रकार चतुर्गति के लक्षण एवं उनकी गुणस्थान व्यवस्था को बताने वाले पाँच सूत्र हुए हैं पुन: तिर्यंच एवं मनुष्यों में समानता और असमानता के प्रतिपादन की मुख्यता से चार सूत्र हुए। इस प्रकार प्रथम अधिकार के द्वारा नौ सूत्रों का कथन हुआ है।
इस प्रकार श्री षट्खण्डागम ग्रंथ के प्रथम खंड में गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी कृत सिद्धान्त-चिन्तामणिटीका में गतिमार्गणा नामका प्रथम अधिकार समाप्त हुआ।
अथ इन्द्रियमार्गणाधिकार:
अधुना इन्द्रियमार्गणापेक्षया सामान्येन कतिविधा जीवा ? इति प्रश्ने सति आचार्यदेव: उत्तरयति-इंदियाणुवादेण अत्थि एइंदिया बीइंदिया तीइंदिया चउरिंदिया पंचिंदिया अणिंदिया चेदि।।३३।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-इंदियाणुवादेण-इन्दनादिन्द्र: आत्मा, तस्येन्द्रस्य लिंगम् इन्द्रियम्। इन्द्रेण सृष्टमिति वा इन्द्रियम्। तेन इन्द्रियानुवादेन। तदिन्द्रियं द्विविधं-द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं चेति। निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्, निर्वत्त्र्यते इति निर्वृत्ति:, कर्मणा या निर्वत्त्र्यते निष्पाद्यते सा निर्वृत्तिरित्यपदिश्यते। सा निर्वृत्तिद्र्विविधा बाह्याभ्यन्तरभेदात्। तत्र लोकप्रमितानां विशुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रियसंस्थानेन अवस्थितानां उत्सेधांगुलस्यासंख्येयभागप्रमितानां वा वृत्तिरभ्यन्तरा निर्वृत्ति:।
अत्र कश्चिदाशंकते-चक्षुरादीनां इन्द्रियाणां क्षयोपशमो हि नाम स्पर्शनेन्द्रियस्य इव किमु सर्वात्मप्रदेशेषु जायते, उत प्रतिनियतेष्विति ? विंâ चात:, न सर्वात्मप्रदेशेषु, स्वसर्वावयवै: रूपाद्युपलब्धिप्रसंगात्। अस्तु चेन्न, तथानुपलंभात्। न प्रतिनियतात्मावयवेषु वृत्ति:, ‘‘सिया ट्ठिया, सिया अट्ठिया, सिया ट्ठियाट्ठिया’’ इति वेदनासूत्रतोऽवगतभ्रमणेषु जीवप्रदेशेषु प्रचलत्सु सर्वजीवानां आन्ध्यप्रसंगात् इति ?
आचार्यदेव: समाधत्ते-नैष दोष:, सर्वजीवावयवेषु क्षयोपशमस्य उत्पत्त्यभ्युपगमात्। न सर्वावयवै: रूपाद्युपलब्धिरपि, तत्सहकारिकारणबाह्यनिर्वृत्तेरशेषजीवावयवव्यापित्वाभावात्।
तेषु आत्मप्रदेशेषु इन्द्रियव्यपदेशभाक्षु य: प्रतिनियतसंस्थानो नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेष: पुद्गलप्रचय: स बाह्या निर्वृत्ति:। मसूरिकाकारा अंगुलस्यासंख्येयभागप्रमिता चक्षुरिन्द्रियस्य बाह्या निर्वृत्ति:। यवनालिकाकारा अंगुलस्यासंख्येयभागप्रमिता श्रोत्रस्य बाह्या निर्वृत्ति:। अतिमुक्तकपुष्पसंस्थाना अंगुलस्यासंख्येयभागप्रमिता घ्राणनिर्वृत्ति:। अर्धचन्द्राकारा क्षुरप्राकारा वाङ्गुलस्य संख्येयभागप्रमिता रसननिर्वृत्ति:। स्पर्शनेन्द्रियनिर्वृत्तिरनियतसंस्थाना। सा जघन्येन अंगुलस्यासंख्येयभागप्रमिता सूक्ष्मशरीरेषु, उत्कर्षेण संख्येयघनाङ्गुलप्रमिता महामत्स्यादित्रसजीवेषु।
सर्वत: स्तोका: चक्षुष: प्रदेशा:, श्रोत्रेन्द्रियप्रदेशा: संख्येयगुणा:, घ्राणेन्द्रियप्रदेशा: विशेषाधिका:, जिह्वायामसंख्येयगुणा:, स्पर्शने संख्येयगुणा:।
अथ इंद्रियमार्गणाधिकार
अब तीन स्थल के द्वारा छह सूत्रों से इन्द्रिय मार्गणा नामका द्वितीय अधिकार कहते हैं। उनमें से प्रथम स्थल में एकेन्द्रिय आदि जीवों के भेद-प्रभेद कथन की मुख्यता से ‘‘एइंदिया’’ इत्यादि तीन सूत्र हैं। उसके पश्चात् द्वितीय स्थल में एकेन्द्रिय आदि जीवों की गुणस्थान व्यवस्था प्ररूपित करने वाले ‘‘एइंदिया’’ इत्यादि दो सूत्र हैं। उसके बाद तृतीय स्थल में इंद्रियरहित जीवों के कथन की मुख्यता से ‘‘तेण परं’’ इत्यादि एक सूत्र है। इस प्रकार यह समुदाय पातनिका हुई।
अब इंद्रिय मार्गणा की अपेक्षा सामान्य से जीव कितने प्रकार के हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं-
सूत्रार्थ—
इन्द्रिय मार्गणा की अपेक्षा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय जीव हैं।।३३।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका—इन्दन अर्थात् ऐश्वर्यशाली होने से यहाँ इन्द्र शब्द का अर्थ आत्मा है और उस इन्द्र के लिंग (चिह्न) को इंद्रिय कहते हैं। अथवा जो इंद्र अर्थात् नामकर्म से रची जावे उसे इंद्रिय कहते हैं। उस इंद्रिय अनुवाद की अपेक्षा इंद्रिय के दो भेद हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय। निर्वृत्ति और उपकरण को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। जो निर्वृत्ति होती है अर्थात् कर्म के द्वारा रची जाती है उसे निर्वृत्ति कहते हैं। वह निर्वृत्ति बाह्य निर्वृत्ति और आभ्यन्तर निर्वृत्ति के भेद से दो प्रकार की है। उसमें प्रतिनियत चक्षु आदि इंद्रियों के आकाररूप से परिणत हुए लोकप्रमाण अथवा उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण विशुद्ध आत्मा के प्रदेशों की रचना को आभ्यन्तर निर्वृत्ति कहते हैं। यहाँ कोई आशंका करता है—
जिस प्रकार स्पर्शन इंद्रिय का क्षयोपशम सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में उत्पन्न होता है उसी प्रकार चक्षु आदि इंद्रियों का क्षयोपशम क्या संपूर्ण आत्मप्रदेशों में उत्पन्न होता है या प्रतिनियत आत्मप्रदेशों में ? आत्मा के सम्पूर्ण प्रदेशों में क्षयोपशम होता है, यह तो माना नहीं जा सकता है क्योंकि ऐसा मानने पर आत्मा के सम्पूर्ण अवयवों से रूपादिक की उपलब्धि का प्रसंग आ जाएगा। यदि कहा जाए कि सम्पूर्ण अवयवों से रूपादि की उपलब्धि होती ही है सो यह भी कहना ठीक नहीं है क्योंकि सर्वांग से रूपादि का ज्ञान होता हुआ पाया नहीं जाता इसलिए सर्वांग में तो क्षयोपशम माना नहीं जा सकता और यदि आत्मा के प्रतिनियत अवयवों में चक्षु आदि इंद्रियों की वृत्ति मानी जाय तो भी कहना नहीं बनता है क्योंकि ऐसा मान लेने पर ‘‘आत्मप्रदेश कथंचित् चल भी हैं, कथंचित् अचल भी हैं और कथंचित् चलाचल भी हैं’’ इस प्रकार वेदनाप्राभृत के सूत्र से आत्मप्रदेशों का भ्रमण अवगत हो जाने पर जीवप्रदेशों की भ्रमणरूप अवस्था में सम्पूर्ण जीवों के अन्धपने का प्रसंग आ जाएगा अर्थात् उस समय चक्षु आदि इंद्रियाँ रूपादि को ग्रहण नहीं कर सकेगी ?
इसका आचार्यदेव समाधान देते हुए कहते हैं— यह कोई दोष नहीं है क्योंकि जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों में क्षयोपशम की उत्पत्ति स्वीकार की है। परन्तु ऐसा मान लेने पर भी जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों के द्वारा रूपादि की उपलब्धि का प्रसंग भी नहीं आता है क्योंकि रूपादि के ग्रहण करने में उसके सहकारी कारणरूप बाह्य निर्वृत्ति जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों में नहीं पाई जाती है।
इंद्रिय व्यपदेश को प्राप्त होने वाले उन आत्मप्रदेशों में जो प्रतिनियत आकार वाला और नामकर्म के उदय से अवस्था विशेष को प्राप्त पुद्गलप्रचय है उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं। मसूर के समान आकार वाली और घनांगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण चक्षु इन्द्रिय की बाह्य निर्वृत्ति होती है। यव की नाली के समान आकार वाली और घनांगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण श्रोत्र इन्द्रिय की बाह्य निर्वृत्ति होती है। कदम्ब के फूल के समान आकार वाली और घनांगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण घ्राण इंद्रिय की बाह्य निर्वृत्ति होती है। अर्धचन्द्र अथवा खुरपा के समान आकार वाली और घनांगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण रसना इंद्रिय की बाह्य निर्वृत्ति होती है। स्पर्शन इंद्रिय की बाह्य निर्वृत्ति अनियत आकार वाली होती है। वह जघन्य प्रमाण की अपेक्षा घनांगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के शरीर में पाई जाती है और उत्कृष्ट प्रमाण की अपेक्षा संख्यात घनांगुल प्रमाण महामत्स्य आदि त्रस जीवों के शरीर में पाई जाती है।
चक्षु इंद्रिय के अवगाहनारूप प्रदेश सबसे कम हैं। उनसे संख्यातगुणे श्रोत्र इंद्रिय के प्रदेश हैं। उनसे अधिक घ्राण इंद्रिय के प्रदेश हैं। उनमें असंख्यातगुणे जिह्वा इंद्रिय में प्रदेश हैं और उनसे संख्यातगुणे स्पर्शन इंद्रिय में प्रदेश हैं।
उक्तं च-
इंदियसंठाणाइं पस्सं पुण णेय-संठाणं।।
उपक्रियतेऽनेनेत्युपकरणम्, येन निर्वृत्तेरुपकार: क्रियते तदुपकरणं। तद् द्विविधं-बाह्याभ्यन्तरभेदात्। तत्राभ्यन्तरं कृष्णशुक्लमण्डलम् बाह्यमक्षिपत्रपक्ष्मद्वयादि। एवं शेषेष्विन्द्रियेषु ज्ञेयम्।
लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्। इन्द्रियनिर्वृत्तिहेतु: क्षयोपशमविशेषो लब्धि:। यत्सन्निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्तिं प्रति व्याप्रियते स ज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषो लब्धिरिति विज्ञायते। तदुक्तनिमित्तं प्रतीत्योत्पद्यमान: आत्मन: परिणाम: उपयोग: इत्यपदिश्यते। तदेतदुभयं भावेन्द्रियम्।
उपयोगस्य तत्फलत्वादिन्द्रियव्यपदेशानुपपत्ति: इति चेत् ?
न, कारणधर्मस्य कार्यानुवृत्ते:। कार्यं हि लोके कारणमनुवर्तमानं दृष्टं, यथा घटाकारपरिणतं विज्ञानं घट इति। तथा इन्द्रियनिर्वृत्ते उपयोगोऽपि इन्द्रियमित्यपदिश्यते।
तेन इन्द्रियेण अनुवाद: इन्द्रियानुवाद: तेन। अत्थि एइंदिया-सन्ति एकेन्द्रिया:। एकं स्पर्शनमिन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रिया: जीवा:। वीर्यान्तरायस्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमांगोपांगनामलाभावष्टम्भात् स्पृशति अनेनेति स्पर्शनं, स्पृशतीति स्पर्शनं। स्पृश्यते इति स्पर्शो वस्तु।
यद्येवं सूक्ष्मेषु परमाण्वादिषु स्पर्शव्यवहारो न प्राप्नोति ?
नैतत्, सूक्ष्मेषु परमाण्वादिषु अस्ति स्पर्श:, स्थूलेषु तत्कार्येषु तद्दर्शनान्यथानुपपत्ते:। न हि अत्यन्तासतां प्रादुर्भावोऽस्ति, अतिप्रसंगात्। किंतु इन्द्रियग्रहणयोग्या ते परमाण्वादयो न भवन्ति।
ते एकेन्द्रिया: पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय: जीवा: सन्ति। स्पर्शनेन्द्रियवन्त: एते इति प्रतिपादकार्षोपलम्भात्। क्व तत्सूत्रमिति चेत् ? कथ्यते-
जाणदि पस्सदि भुंजदि सेवदि पासिंदिएण एक्केण।
कुणदि य तस्सामित्तं थावरु एइंदिओ तेण।।
य: कश्चित् जीव: एकेन स्पर्शनेन्द्रियेण जानाति पश्यति भुनक्ति सेवते तस्य स्वामित्वं च करोति तेनासौ एकेन्द्रिय: स्थावर: जीव: कथ्यते। एषां जीवानां वीर्यान्तरायस्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमे सति शेषेन्द्रियसर्वघातिस्पर्धकोदये चैकेन्द्रियजातिनामकर्मोदयवशवर्तितायां च सत्यां स्पर्शनमेकमिन्द्रियमाविर्भवति।
द्वे स्पर्शनरसने इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रिया:, शंखशुक्तिकृम्यादय:।
उक्तं च-
कुक्खि-किमि-सिंपि-संखा गंडूडारिट्ठ-अक्ख-खुल्ला य।
तह य वराडय जीवा णेया बीइंदिया एदे।।
कुक्षौ कृमय:-चैतद्ब्रणादिकृमीणां। शंख: प्रसिद्ध:। खुल्लय-क्षुल्लका:-क्षुद्रका: वा प्रसिद्धा: एव बाला यै: कपर्दकैरिव क्रीडन्ते। वराडय-वराटका: कपर्दका:। अक्खमहांतो-कपर्दका:, रिट्ठय-बालशरीरसमुद्भवास्तंतुसमाना: जीवविशेषा:। गंडवालय-सुप्रसिद्धं। संबूय-लघुशंख:, सिप्पि-सुप्रसिद्धा:। पुलवि-जलौका:।
रसयत्यनेनेतिरसनं, रसयतीति रसनं, वस्तुविषयविवक्षायां रस्यते इति रस:, रसनं रस: इति। न सूक्ष्मेषु परमाण्वादिषु रसाभाव:, उक्तोत्तरत्वात्।
द्वीन्द्रियजीवानां वीर्यांतरायस्पर्शनरसनेन्द्रियावरणक्षयोपशमे सति शेषेन्द्रियसर्वघातिस्पर्धकोदये चाङ्गोपांगनामलाभावष्टम्भे द्वीन्द्रियजातिकर्मोदयवशवर्तितायां च सत्यां स्पर्शनरसनेन्द्रिये आविर्भवत:।
त्रीणि इन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणानि येषां ते त्रीन्द्रिया:, कुंथुमत्कुणादय:।
उक्तं च-
कुंथु-पिपीलिक-मंकुण-विच्छिअ-जू इंदगोव-गोम्ही य।
उत्तिंगणट्टियादी णेया तीइंदिया जीवा।।
कुंथु-सूक्ष्मो जंतु:, पिपीलिका:, मत्कुणा:-यूका:, वृश्चिका:, गोंभिका:, इंद्रगोपकाश्च प्रसिद्धा एव। गोम्ही-‘कनखजूरा’ इति यावत् उत्तिंग-गर्दभाकार: कीटविशेष:, तथा णट्टियादि-नट्टियादि-कीटविशेष:, इमे त्रीन्द्रिया: जीवा: सन्ति।
जिघ्रत्यनेनात्मा इति घ्राणं। जिघ्रतीति घ्राणं। कोऽस्य विषय: ? गंध:। गन्ध्यते इति गन्धो वस्तु, गंधनं गंध: इति। त्रीन्द्रियजीवानां वीर्यान्तरायस्पर्शनरसनघ्राणेन्द्रियावरणक्षयोपशमे सति शेषेन्द्रियसर्वघातिस्पर्धकोदये चांगोपांगनामलाभावष्टम्भे त्रीन्द्रियजातिकर्मोदयवशवर्तितायां च सत्यां स्पर्शन-रसन-घ्राणेन्द्रियाण्याविर्भवन्ति।
चत्वारि इन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षूंषि येषां ते चतुरिन्द्रिया:। मशकमक्षिकादय:।
कहा भी है-
गाथार्थ—श्रोत्र इंद्रिय का आकार यव की नाली के समान है, चक्षु इंद्रिय का मसूर के समान, रसना इंद्रिय का आधे चन्द्रमा के समान, घ्राण इंद्रिय का कदम्ब के फूल के समान आकार है और स्पर्शन इंद्रिय अनेक आकार वाली है।
जिसके द्वारा उपकार किया जाता है अर्थात् जो निर्वृत्ति का उपकार करता है उसे उपकरण कहते हैं। वह बाह्य उपकरण और अभ्यन्तर उपकरण के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से कृष्ण और शुक्ल मण्डल नेत्र इंद्रिय का अभ्यन्तर उपकरण है और दोनों पलके तथा दोनों नेत्ररोम (बरोनी) आदि उसके बाह्य उपकरण हैं। इसी प्रकार शेष इंद्रियों में जानना चाहिए।
लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं। इंद्रिय की निर्वृत्ति का कारणभूत जो क्षयोपशम विशेष है उसे लब्धि कहते हैं अर्थात् जिसके सन्निधान से आत्मा द्रव्येन्द्रिय की रचना में व्यापार करता है ऐसे ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष को लब्धि कहते हैं और उस पूर्वोक्त निमित्त के आलम्बन से उत्पन्न होने वाले आत्मा के परिणाम को उपयोग कहते हैं। इस प्रकार लब्धि और उपयोग ये दोनों भावेन्द्रियाँ हैं।
शंका—उपयोग इंद्रियों का फल है इसलिए उपयोग को इंद्रिय संज्ञा देना उचित नहीं है ?
समाधान—नहीं, क्योंकि कारण में रहने वाले धर्म की कार्य में अनुवृत्ति होती है। अर्थात् लोक में कार्य कारण का अनुकरण करता हुआ देखा जाता है। जैसे-घट के आकार से परिणत हुए ज्ञान को घट कहा जाता है उसी प्रकार इंद्रियों से उत्पन्न हुए उपयोग को भी इंद्रिय संज्ञा दी गई है।
उस इंद्रिय की अपेक्षा अनुवाद अर्थात् आगमानुकूल कथन किया जाता है उसे इंद्रियानुवाद कहते हैं। उसकी अपेक्षा एक इंद्रिय जीव हैं। जिनके एक ही इंद्रिय पाई जाती है उन्हें एकेन्द्रिय जीव कहते हैं। वीर्यान्तराय और स्पर्शनेन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से तथा आंगोपांग नामकर्म के उदयरूप आलम्बन से जिसके द्वारा स्पर्श किया जाता है उसे स्पर्शन इंद्रिय कहते हैं। जो स्पर्श करता है उसे स्पर्शन इंद्रिय कहते हैं, जो स्पर्शित है-स्पर्श किया जाता है वह स्पर्श वस्तुरूप है।
शंका—यदि ऐसा है तो सूक्ष्म परमाणु आदि में स्पर्श व्यवहार नहीं बन सकता है ?
समाधान—ऐसा नहीं है, क्योंकि सूक्ष्म परमाणु आदि में स्पर्श है अन्यथा परमाणुओं के कार्यरूप स्थूल पदार्थों में स्पर्श की उपलब्धि नहीं हो सकती थी। किन्तु स्थूल पदार्थों में स्पर्श पाया जाता है इसलिए सूक्ष्म परमाणुओें में भी स्पर्श की सिद्धि होती है क्योंकि न्याय का यह सिद्धान्त है कि जो अत्यंत (सर्वथा) असत् होते हैं उनकी उत्पत्ति नहीं होती है। यदि सर्वथा असत् की उत्पत्ति मानी जावे तो अतिप्रसंग हो जाएगा। इसलिए यह समझना चाहिए कि परमाणुओं में स्पर्शादिक पाये तो अवश्य जाते हैं किन्तु वे इंद्रियों के द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं होते हैं।
वे एकेन्द्रिय जीव पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति पाँच भेद रूप होते हैं। ये पाँचों एकेन्द्रिय जीव एक स्पर्शन इंद्रिय वाले होते हैं इस प्रकार कथन करने वाला आर्ष वचन पाया जाता है।
यह सूत्रवचन कहाँ पाया जाता है ? तो इसका उत्तर कहते हैं—
गाथार्थ—
स्थावर जीव एक स्पर्शन इंद्रिय के द्वारा ही जानता है, देखता है, भोगता है, सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा है।
जो कोई जीव एक स्पर्शन इंद्रिय के द्वारा जानता है, देखता है, भोगता है, सेवन करता है और उसका स्वामित्व करता है वह एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा जाता है। इन जीवों के वीर्यान्तराय और स्पर्शनेन्द्रियावरण का क्षयोपशम होने पर शेष इंद्रियों के सर्वघाति स्पर्धकों का उदय होने पर और एकेन्द्रियजातिनामकर्म के उदय के वशवर्ती होने पर स्पर्शन नामकी एक इंद्रिय प्रगट होती है।
स्पर्शन और रसना ये दो इंद्रियाँ जिनके होती हैं वे शंख, शुक्ति और कृमि आदि द्वींद्रिय जीव कहलाते हैं। कहा भी है—
गाथार्थ—
कुक्षि-कृमि, सीप, शंख, गण्डोला, अरिष्ट, अक्ष, क्षुद्रक (छोटा शंख) और कौड़ी आदि द्वीन्द्रिय जीव हैं। घाव आदि में हो जाने वाले या पेट में रहने वाले छोटे-छोटे कीड़ों को ‘कृमि’ कहते हैं। शंख तो प्रसिद्ध है। क्षुल्लक भी प्रसिद्ध ही है-बच्चे जिन छोटी कौड़ियों से खेलते हैं उनको क्षुद्रक कहते हैं। वराटक कौड़ी को कहते हैं। अक्षमहन्तक भी कौड़ी का ही एक अपरनाम है। बच्चों के शरीर में उत्पन्न होने वाले तंतु के समान जीव विशेष को अरिष्ट कहते हैं। गंडवाल-गंडोलक (केचुवा) सुप्रसिद्ध है-पेट में होने वाली बड़ी कृमि गण्डोलक कहलाती है। लघुकाय शंख को संबूक कहते हैं, सीप एक जीव का कलेवर है। जल में रहने वाले एक जलचर जीव को पुलवि (जोक) कहते हैं।
जिसके द्वारा स्वाद का ग्रहण होता है उसे रसना कहते हैं। जो आस्वाद ग्रहण करती है उसको रसना कहते हैं। वस्तु के विषय की विवक्षा होने पर जिसका स्वाद लिया जाता है वह रस कहलाता है अथवा आस्वादनरूप क्रिया धर्म को रस कहते हैं। सूक्ष्म परमाणु आदि में रस का अभाव हो जाएगा, यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि इसका उत्तर पहले दे आए हैं।
द्वीन्द्रिय जीवों के वीर्यांतराय और स्पर्शन-रसना इंद्रियावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर शेष इंद्रियावरण कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय होने पर आंगोपांग नामकर्म के आलम्बन होने पर तथा द्वीन्द्रिय जातिनामकर्म के उदय की वशवर्तिता होने पर स्पर्शन और रसना ये दो इंद्रियाँ उत्पन्न होती हैं।जिनके स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इंद्रियाँ होती हैं उन्हें त्रीन्द्रिय जीव कहते हैं। जैसे-कुन्थु, खटमल आदि। कहा भी है—
गाथार्थ—
कुन्थु, पिपीलिका (चींटी), खटमल, बिच्छू, जूं, इंद्रगोप, कनखजूरा, गर्दभाकार कीटविशेष तथा नट्टियादिक कीटविशेष इन सबको तीन इंद्रिय जीव जानना चाहिए। जिसके द्वारा सूँघा जाता है उसे घ्राण इंद्रिय कहते हैं अथवा जो सूँघता है उसे घ्राण इंद्रिय कहते हैं। इस इंद्रिय का विषय क्या है ? ‘गन्ध’ इसका विषय है। जो गंध प्रदान करती है वह वस्तु गंध कहलाती है। अथवा गन्धन मात्र को गंध कहते हैं। तीन इंद्रिय जीवों के वीर्यान्तराय और स्पर्शन, रसना, घ्राण इंद्रियावरण का क्षयोपशम होने पर तथा शेष इंद्रियावरण से सर्वघाति स्पर्धकों का उदय होने पर एवं आंगोपांग नामकर्म के उदय के आलम्बन से त्रीन्द्रियजातिनामकर्म के उदय की वशवर्तिता होने पर स्पर्शन, रसना, घ्राण ये तीन इंद्रियाँ प्रगट होती हैं। जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु ये चार इंद्रियाँ होती हैं वे चतुरिन्द्रिय जीव कहलाते हैं। जैसे-मच्छर, मक्खी आदि।
उक्तं च-
मक्कडय-भमर-महुवर-मसय-पदंगा य सलह-गोमच्छी। मच्छी सदंस कीडा णेया चउरिंदिया जीवा।। मर्कटिका-भ्रमर-मधुकर-मशक-पतंगा: च शलभ-गोमच्छिका, मच्छिका-दंशा:, कीटशब्देन गोमयकीटरक्तकीटार्ककीटादय: चतुरिन्द्रियविशेषा: गृह्यन्ते। चष्टेऽर्थान् पश्यत्यनेनेति चक्षु:। चष्टे इति चक्षु:। कोऽस्य विषयश्चेद् वर्ण:। वण्र्यते इति वर्ण:, वर्णनं वर्ण: इति वा। चतुरिन्द्रियजीवानां वीर्यान्तरायस्पर्शनरसनघ्राणचक्षुरावरणक्षयोपशमे सति शेषेन्द्रियसर्वघाति-स्पर्धकोदये चांगोपांगनामलाभावष्टम्भे चतुरिन्द्रिय-जातिकर्मोदयवशवर्तितायां च सत्यां चतुर्णामिन्द्रियाणामा-विर्भावो भवेत्। पंच इन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षु:श्रोत्राणि येषां ते पंचेन्द्रिया:। ते जरायुजाण्डजादय:।
उक्तं च-
रस-पोतंडज-जरजणेया पंचिंदिया जीवा।।
संस्वेद: प्रस्वेद: तत्र भवा: संस्वेदिमा:, समंतत: पुद्गलानां मूच्र्छनं संघातीभवनं संमूच्र्छ: तत्र भवा: सम्मूचछमा:, उद्भेदनमुद्भेद: भूकाष्ठपाषाणादिवंâ भित्वोध्र्वं नि:सरणं, स येषामस्ति ते उद्भेदिमा:। उपेत्य गत्वोपपद्यते जायतेऽस्मिन् इत्युपपादो देवनारकाणां जन्मस्थानं तत्र भवा: उपपादिमा:, रसो घृतादि:, सप्तधातूनां प्रथमो धातुर्वा, स येषामस्ति ते रसायिका:। पोतो मार्जारादिगर्भविशेष:, स येषामस्ति ते पोतायिका:। नखत्वक्सदृशमुपात्तकाठिन्यं शुक्रशोणितपरिवरणं परिमंडलमंडं, स येषामस्ति ते अंडायिका: अंडजा: वा। जालवत् प्राणिपरिवरणं विततमांसशोणितं जरायु:, स येषामस्ति ते जरायिका: जरजा वा, इमे पंचेन्द्रिया: सन्ति। इमानि स्पर्शनादीनि करणसाधनानि। कुत: पारतन्त्र्यात्। इन्द्रियाणां हि लोके दृश्यते च पारतन्त्र्यविवक्षा आत्मन: स्वातन्त्र्यविवक्षायां, अनेनाक्ष्णा सुष्ठु पश्यामि, अनेन कर्णेन सुष्ठु शृणोमीति। ततो वीर्यान्तरायश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमांगोपांगनामलाभावष्टम्भाच्छृणोत्यनेनेति श्रोत्रं। कर्तृसाधनं च भवति स्वातन्त्र्यविवक्षायां। दृश्यते च इन्द्रियाणां लोके स्वातन्त्र्यविवक्षा, इदं मेऽक्षि सुष्ठु पश्यति, अयं मे कर्ण: सुष्ठु शृणोतीति। तत: पूर्वोक्तहेतुसन्निधाने सति शृणोतीति श्रोत्रम्।
कोऽस्य विषय: ?
शब्द:। यदा द्रव्यं प्राधान्येन विवक्षितं तदेन्द्रियेण द्रव्यमेव सन्निकृष्यते, न ततो व्यतिरिक्ता: स्पर्शादय: केचन सन्तीति एतस्यां विवक्षायां कर्मसाधनत्वं शब्दस्य युज्यते इति, शब्द्यते इति शब्द:। यदा तु पर्याय: प्राधान्येन विवक्षितस्तदा भेदोपपत्ते: औदासीन्यावस्थितभावकथनाद् भावसाधन: शब्द:, शब्दनं शब्द: इति।
कुत एतेषामाविर्भाव: इति चेत् ?
वीर्यान्तरायस्पर्शनरसनघ्राणचक्षु:श्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमे सति अंगोपांगनामलाभावष्टम्भे पंचेन्द्रियजाति-कर्मोदयवशवर्तितायां च सत्यां पंचानामिन्द्रियाणां आविर्भावो भवेत्।
नेदं व्याख्यानमत्र प्रधानम्, ‘‘एकद्वित्रिचतु:पंचेन्द्रियजातिनामकर्मोदयादेकद्वित्रिचतु:पंचेन्द्रिया भवंति’’ इति भावसूत्रेण सह विरोधात्। तत: एकेन्द्रियजातिनामकर्मोदयादेकेन्द्रिय: द्वीन्द्रियादिनामकर्मोदयाद् द्वीन्द्रियादय: एषोऽर्थोऽत्र प्रधानं, निरवद्यत्वात्।
अधुना इन्द्रियातीतजीवानां व्याख्यानं क्रियते-
न सन्तीन्द्रियाणि येषां तेऽनिन्द्रिया:। के ते ? अशरीरा: सिद्धा:।
उक्तं च-
णवि इंदियकरणजुदा अवग्गहादीहि गाहया अत्थे।
णेव य इंदिय-सोक्खा अणिंदियाणंत-णाण-सुहा।।
ये जीवा नियमेन इन्द्रियकरणै:-उन्मीलनादिव्यापारै: युता: न सन्ति। तथा च अवग्रहादिभि:-क्षायोपशमिकज्ञानैरर्थग्राहका: न भवन्ति, पुन: इन्द्रियविषयसंश्लेषजनितसुखयुता नैव सन्ति ते जिनसिद्धनामानो जीवा अनिन्द्रियानन्तज्ञानसुखकलिता भवन्ति। कस्मात् ? तज्ज्ञानसुखयो: शुद्धात्मस्वरूपोपलब्ध्युत्पन्नत्वात् इति।
अत्र कश्चित् शंकते-
तेषु सिद्धेषु भावेन्द्रियस्य उपयोगस्य सत्त्वात् ते सिद्धा: सेन्द्रिया: इति ?
तस्य समाधानं क्रियते-नैतत् कथयितव्यं, किंच, क्षयोपशमजनितस्य उपयोगस्य इन्द्रियत्वात्। न च क्षीणाशेषकर्मसु सिद्धेषु क्षयोपशमोऽस्ति, तस्य क्षयोपशमस्य क्षायिकभावेन अपसारितत्वात्।
अत: सिद्धपरमेष्ठिनोऽतीन्द्रिया एव, ततोऽस्माभिरपि पंचेन्द्रियनिरोधव्रतैरतीन्द्रियपदस्य प्राप्त्यर्थं प्रयत्नं कर्तव्य:।
संप्रति एकेन्द्रियभेदानां प्रतिपादनार्थं उत्तरसूत्रावतार: क्रियते श्रीमत्पुष्पदंतभट्टारकेन-
एइंदिया दुविहा, बादरा सुहुमा। बादरा दुविहा, पज्जत्ता अपज्जत्ता। सुहुमा दुविहा, पज्जत्ता अपज्जत्ता।।३४।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-एइंदिया दुविहा, बादरा सुहुमा-एकेन्द्रिया: द्विविधा:-बादरा: सूक्ष्मा इति। तत्र मूर्तैरन्यै: प्रतिहन्यमानशरीरनिर्वत्र्तको बादरकर्मोदय:, बादरकर्मोदयवन्तो जीवा: बादरा:। अप्रतिहन्यमान-शरीरनिर्वर्तक: सूक्ष्मकर्मोदय:, सूक्ष्मकर्मोदयवन्तो जीवा: सूक्ष्मा: इति।
चक्षुग्र्राह्या बादरा अचक्षुग्र्राह्या: सूक्ष्मा भवन्ति इति ?
नैतत् वक्तव्यं, बादरा अपि अचक्षुग्र्राह्या भवन्ति, अवगाहनापेक्षयापि क्वचित् क्वचित् सूक्ष्मजीवात् बादरजीवावगाहना हीना श्रूयते।
उक्तं च-
‘‘बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदिय-अपज्जत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा। सुुहुमणिगोदपज्जत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा।’’
अत: परैर्मूर्तद्रव्यैरप्रतिहन्यमानशरीरनिर्वृत्तकं सूक्ष्मकर्म। तद्विपरीतशरीरनिर्वृत्तकं बादरकर्मेति स्थितम्। तत्र बादरा दुविहा, पज्जत्ता अपज्जत्ता-बादरा: द्विविधा: पर्याप्ता: अपर्याप्ता:। सुहुमा दुविहा, पज्जत्ता अपज्जत्ता-सूक्ष्मा: द्विविधा: पर्याप्ता: अपर्याप्ता: इति। पर्याप्तकर्मोदयवन्त: पर्याप्त:, तद्विपरीतोऽपर्याप्त:।
कहा भी है—
गाथार्थ—मकड़ी, भौंरा, मधुमक्खी, मच्छर, पतंग, शलभ, गोमक्खी, मक्खी, डंक वाले कीड़े आदि चतुरिन्द्रिय जीव कहलाते हैं। जिसके द्वारा पदार्थों को देखा जाता है उसे चक्षु कहते हैं। जो देखता है वह चक्षु है। इस चक्षु इंद्रिय का विषय क्या है ? इसका विषय वर्ण है। जो देखा जाए उसे वर्ण कहते हैं अथवा देखनेरूप धर्म को वर्ण कहते हैं ऐसी निरुक्ति है।
चतुरिन्द्रिय जीवों के वीर्यान्तरायकर्म और स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु इंद्रियावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर, शेष इंद्रियावरण कर्म के सर्वघातिस्पर्धकों का उदय होने पर और आंगोपांग नामकर्म के उदय का आलम्बन एवं चतुरिन्द्रियजाति नामकर्म की वशवर्तिता होने पर चार इंद्रियों की उत्पत्ति होती है।
जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इंद्रियाँ होती हैं वे पंचेन्द्रिय कहलाते हैं। वे जरायुज, अण्डज आदि जीव हैं। कहा भी है—
गाथार्थ—
संस्वेदज, सम्मूर्छिम, उद्भेदिम, औपपादिक, रसज, पोत, अंडज, जरायुज ये सब पंचेन्द्रिय जीव जानना चाहिए। प्रस्वेद-पसीने में उत्पन्न होने वाले जीव संस्वेदिम कहलाते हैं, चारों ओर से पुद्गलों का मूच्र्छन अर्थात् संघात-एकत्रीकरण का होना सम्मूच्र्छ है और उस सम्मूच्र्छ से उत्पन्न होने वाले जीव सम्मूर्च्छिम कहलाते हैं।
पृथ्वी, काष्ठ, पाषाण आदि का भेदन करके ऊपर की ओर नि:सरण-निकलना उद्भेद कहा जाता है। वह उद्भेद है जिन जीवों के ऐसे वे उद्भेदिम कहलाते हैं।
उपेत्य-आकरके यह जीव जिसमें उत्पन्न होता है वह उपपाद है, देव और नारकियों के जन्मस्थान को वह उपपाद संज्ञा प्राप्त है। उस उपपाद में जन्म लेने वाले जीव उपपादिम कहलाते हैं।
घृत-घी (घी, तेल आदि) रस कहलाते हैं अथवा सात धातुओं में से प्रथम धातु भी रस है, उस रस में जो जीव पैदा हो जाते हैं वे रसायिक कहलाते हैं। बिल्ली आदि के गर्भ विशेष को पोत कहते हैं वह पोत जन्म जिनके होता है वे पोतायिक कहे जाते हैं।
नख-नाखून की त्वक्-त्वचा के समान ग्रहण किए गए काठिन्य-कठोरपने तथा शुक्र, शोणित से युक्त परिमंडल-गोलाकार को अण्ड कहते हैं उस अण्ड से जिसका जन्म होता है वे अंडायिक अथवा अंडज जीव कहलाते हैं।
जाल के सदृश माँस और शोणित के समूह से प्राणियों के ऊपर जो आवरण होता है उसे जरायु कहते हैं वह जरायु जिनके होता है वे जीव जरायिक अथवा जरज कहलाते हैं। ये सभी भेद पंचेन्द्रिय जीवों के होते हैं।
ये स्पर्शन आदि इंद्रियाँ करणरूप से साधन हैं। कैसे ? क्योंकि वे परतंत्र देखी जाती हैं। लोक में आत्मा की स्वातंत्र्यविवक्षा होने पर इंद्रियों की पारतंत्र्यविवक्षा देखी जाती है। जैसे-मैं इस आँख से अच्छी तरह देखता हूँ, इस कान से मैं अच्छी तरह सुनता हूँ। इसलिए वीर्यान्तराय और श्रोत्र इंद्रियावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर, आंगोपांग नामकर्म के आलम्बन से जिसके द्वारा सुना जाता है उसे श्रोत्र इंद्रिय कहते हैं। तथा स्वातंत्र्यविवक्षा में कर्तृसाधन होता है क्योंकि लोक में इंद्रियोें की स्वातन्त्र्यविवक्षा भी देखी जाती है। जैसे-मेरी यह आँख अच्छी तरह देखती है, मेरा यह कान अच्छी तरह सुनता है इसलिए पहले कहे गये हेतुओं के मिलने पर जो सुनती है उसे श्रोत्र इंद्रिय कहते हैं।
शंका—इसका विषय क्या है ?
समाधान—शब्द इसका विषय है। जिस समय प्रधानरूप से द्रव्य विवक्षित होता है उस समय इंद्रियों के द्वारा द्रव्य का ही ग्रहण होता है। उससे भिन्न स्पर्शादिक कोई चीज नहीं है। इस विवक्षा में शब्द के कर्मसाधनपना बन जाता है। जैसे-‘शब्द्यते’ अर्थात् जो ध्वनिरूप हो वह शब्द है। जिस समय प्रधानरूप से पर्याय विवक्षित होती है उस समय द्रव्य से पर्याय का भेद सिद्ध हो जाता है अतएव उदासीनरूप से अवस्थित भाव का कथन किया जाने से शब्द भावसाधन भी है जैसे-‘शब्दनम् शब्द:’ अर्थात् ध्वनिरूप क्रियाधर्म को शब्द कहते हैं। इन पाँचों इंद्रियों की उत्पत्ति कैसे होती है ?
वीर्यान्तराय और स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु तथा श्रोत्रेन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर, आंगोपांग नामकर्म के आलम्बन होने पर तथा पंचेन्द्रियजाति नामकर्म के उदय की वशवर्तिता होने पर पाँचों इंद्रियों की उत्पत्ति होती है।
यहाँ इस व्याख्यान की प्रधानता नहीं है क्योंकि ‘‘एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियजाति नामकर्म के उदय से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जीव होते हैं’’ इस भावानुगम के सूत्र के साथ पूर्वोक्त कथन का विरोध आता है। इसलिए एकेन्द्रियजाति नामकर्म के उदय से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जातिनामकर्म के उदय से द्वीन्द्रियादि जीव उत्पन्न होते हैं यही अर्थ यहाँ पर प्रधान है क्योंकि यह कथन निर्दोष है।
अब इन्द्रियातीत जीवों का व्याख्यान किया जाता है— जिनके इन्द्रियाँ नहीं पाई जाती हैं उन्हें अनिन्द्रिय जीव कहते हैं। वे कौन हैं ? शरीर रहित सिद्ध अनिन्द्रिय हैं। कहा भी है—
गाथार्थ—
जो इन्द्रियों के करण-व्यापार से युक्त नहीं हैं, अवग्रह आदिक ज्ञान के द्वारा पदार्थों को ग्रहण नहीं करते हैं, जिनके इन्द्रिय सुख भी नहीं है उनका अनंत ज्ञान और सुख अनिन्द्रिय कहलाता है।
जो जीव नियम से इन्द्रिय व्यापार-नेत्र खोलना-बंद करना आदि व्यापाररूप क्रियाओं से युक्त नहीं हैं तथा अवग्रहादि क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा पदार्थों को ग्रहण नहीं करते हैं, पुन: इन्द्रियविषयों के सम्बन्ध से उत्पन्न सुख से युक्त भी नहीं हैं वे अरहंत और सिद्ध नाम वाले जीव अनिन्द्रिय, अनंतज्ञान, अनंतसुख से सहित होते हैं। क्यों ? क्योंकि शुद्धात्मा के स्वरूप की उपलब्धि होने पर वह अनंतज्ञान और अनंतसुख प्रगट होता है। यहाँ कोई शंका करता है कि—
उन सिद्धों में भावेन्द्रिय और तज्जन्य उपयोग पाया जाता है इसलिए वे इंद्रियसहित हैं ? आचार्यदेव इसका समाधान करते हैं कि—
ऐसा नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षयोपशम से उत्पन्न हुए उपयोग को इंद्रिय कहते हैं परन्तु जिनके सम्पूर्ण कर्म क्षीण हो गये हैं ऐसे सिद्धों में क्षयोपशम नहीं पाया जाता है क्योंकि वह क्षायिक भाव के द्वारा दूर कर दिया जाता है।
अत: सिद्धपरमेष्ठी अतीन्द्रिय ही हैंं, इसलिए हम लोगों को भी पाँचो इन्द्रियों के निरोधरूप महाव्रतों के द्वारा अतीन्द्रिय पद की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
अब एकेन्द्रिय जीवों के भेदों का प्रतिपादन करते हुए श्रीपुष्पदंत आचार्य भट्टारक उत्तरसूत्र का अवतार करते हैं—
सूत्रार्थ—
एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं-बादर और सूक्ष्म। बादर एकेन्द्रिय के दो प्रकार हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। सूक्ष्म एकेन्द्रिय के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त।।३४।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका—एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं-बादर और सूक्ष्म। उनमें से बादरनामकर्म का उदय दूसरे मूर्त पदार्थों से आघात करने योग्य शरीर को उत्पन्न करता है। जिन जीवों के बादर नामकर्म का उदय पाया जाता है वे बादर हैं।
सूक्ष्मनामकर्म का उदय दूसरे मूर्त पदार्थों के द्वारा आघात नहीं करने योग्य शरीर को उत्पन्न करता है और जिनके सूक्ष्मनामकर्म का उदय पाया जाता है वे सूक्ष्म हैं ऐसा सिद्ध हो जाता है।
शंका—चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य पदार्थ बादर होते हैं और चक्षु के द्वारा नहीं ग्रहण करने योग्य पदार्थ सूक्ष्म होते हैं ऐसा मानना चाहिए ?
समाधान—ऐसा नहीं कहना क्योंकि कुछ बादर पदार्थ भी ऐसे होते हैं जो चक्षु के द्वारा ग्रहण नहीं किए जा सकते हैं, अवगाहना की अपेक्षा भी कहीं-कहीं सूक्ष्म जीवों से बादर जीवों की अवगाहना हीन देखी जाती है।
कहा भी है-दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवों की जघन्य अवगाहना उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी है। इनसे सूक्ष्मनिगोदिया पर्याप्तक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है।
इस कथन से यह बात सिद्ध हुई कि जिसका मूर्त पदार्थों से प्रतिघात नहीं होता है ऐसे शरीर को निर्माण करने वाला सूक्ष्म नामकर्म है और उससे विपरीत अर्थात् मूर्त पदार्थों के प्रतिघात को प्राप्त होने वाले शरीर को निर्माण करने वाला बादर नामकर्म है। इनमें से बादर के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। सूक्ष्म जीव के भी दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। उनमें से जो पर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त हैं उन्हें पर्याप्त कहते हैं एवं इससे विपरीत अर्थात् अपर्याप्त नामकर्म के उदय से सहित जीव अपर्याप्त कहलाते हैं।