06.काय मार्गणा
काय मार्गणा
प्रश्न:1-काय मार्गणा किसे कहते हैं?
उत्तर-जाति नामकर्म के उदय से अविनाभावी त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न आत्मा कीं त्रस तथा स्थावर रूप पर्याय को काय कहते हैं ।
व्यवहारी पुरुषों के द्वारा 'त्रस-स्थावर' इस प्रकार से कहा जाता है, वह काय है । पुद्गल स्कन्धों के द्वारा जो पुष्टि को प्राप्त हो वह काय है ।
काय' में जीवों की खोज करना काय मार्गणा है । (गो.जी. 181)
प्रश्न:-2काय मार्गणा कितने प्रकार की है?
उत्तर-काय मार्गणा छह प्रकार की है- ( 1) पृथ्वीकाय ( 2) जलकाय ( 3) अग्निकाय (4) वायुकाय (5) वनस्पतिकाय (6) त्रसकाय । ३- द्र.. 13 टी.) पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक तथा कायातीत जीव क होते हैं । (गो. जी. 18 ')
प्रश्न:-3स्थावर जीव किसे कहते हैं?
उत्तर-स्थावर जीव एष्क स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, सेवन करता है, उसका स्वामीपना करता है इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा है । (ध. 1? 241) स्थावर नामकर्म के उदय से जीव स्थावर कहलाते हैं ।
स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई विशेषता के कारण ये पाँचों ही स्थावर कहलाते हैं । (ध. 1? 267)
प्रश्न:-4त्रसकायिक जीव किसे कहते हैं?
उत्तर-त्रस नामकर्म के उदय से उत्पन्न वृत्तिविशेष वाले जीव त्रस कहे जाते हैं । रखा, 1) लोक में जो दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय से सहित जीव दिखाई देते हैं उन्हें वीर भगवान के उपदेश से त्रसकायिक जानना चाहिए (पस.)
प्रश्न:-5अकाय जीव किसे कहते हैं?
उत्तर-जिस प्रकार सोलह ताव के द्वारा तपाये हुए सुवर्ण में बाह्य किट्टिका और अध्यन्तर कालिमा इन दोनों ही प्रकार के मल का बिस्कुल अभाव हो जाने पर फिर किसी दूसरे मल का सम्बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार महाव्रत और धर्मध्यानादि से सुसस्कृत रख सुतप्त आत्मा में से एष्क बार शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा बाह्य मल काय और अंतरंग मल कर्म के सम्बन्ध के सर्वथा छूट जाने पर फिर उनका बन्ध नहीं होता और वे सदा के लिए काय तथा कर्म से रहित होकर सिद्ध हो जाते हैं । (गो. जी. 2०3)
तालिका संख्या 8
प्रथ्वीकायिकादि चार
क्रम | स्थान | संख्या | विवरण | विशेष | |
---|---|---|---|---|---|
1 | गति | 1 | तिर्यञ्चगति | ||
2 | इन्द्रिय | 1 | एकेन्द्रिय | ||
3 | काय | स्वकीय | पृथ्वीकायिकादि | पृध्वीकायिक में पृथ्वीकायिक | |
4 | योग | 3 | औदारिकद्बिक और कार्मण | ||
5 | वेद | 1 | नपुसक | ||
6 | कषाय | 23 | 16 कषाय 7 नोकषाय | ||
7 | ज्ञान | 2 | कुमति, कुश्रुत | ||
8 | संयम | 1 | असंयम | ||
9 | दर्शन | 1 | अचखुदर्शन | ||
10 | लेश्या | 3 | कृ. नी. का. | शुभ लेश्या नहीं है । | |
11 | भव्यत्व | 2 | भव्य, अभव्य | ||
12 | सम्यक्त्व | 2 | मिथ्यात्व, सासादन | अग्निकायिक, वायुकायिक में सासादन सम्बक्ल नहीं है। | |
13 | संज्ञी | 1 | असैनी | ||
14 | आहार | 2 | आहारक, अनाहारक | ||
15 | गुणस्थान | 2 | पहला, दूसरा | ||
16 | जीवसमास | स्वकीय | अपने-अपने सूक्ष्म बादर की अपेक्षा दो-दो । | ||
17 | पर्याप्ति | 4 | आ. श. इ. श्वासो. | ||
18 | प्राण | 4 | 1 इ. 1 बल, श्वा. आ. | कायबल होता है। | |
19 | संज्ञा | 4 | आ. भ. मै. पीर. | ||
20 | उपयोग | 3 | 2 कुज्ञानो. 1 दर्शनो. | अचखुदर्शनो. होता है। | |
21 | ध्यान | 8 | 4 आ. 4 रौ. | ||
22 | आसव | 38 | 5 मि. 7 अ. 23 क. 3 यो. | ||
23 | जाति | स्वकीय | अपनी-अपनी 7-7 लाख | ||
24 | कुल | स्वकीय | पू. 22 लाक., ज. 7 ला.क.अग्नि 3 लाक., ११२१ ला.क |
प्रश्न:-6पृथ्वी कितने प्रकार की है?
उत्तर-पृथ्वी चार प्रकार की है - 1. पृथ्वी 2. पृथ्वीकाय 3. पृथ्वीकायिक 4. पृथ्वी जीव ।
पृथिवी (पृथ्वी) जो अचेतन है, प्राकृतिक परिणमनों से बनी है और कठिन गुणवाली है वह पृथिवी या पृथ्वी है यह पृथिवी आगे के तीनों भेदों में पायी जाती है ।
पृथिवीकाय - काय का अर्थ शरीर है, अत: पृथिवीकायिक जीव के द्वारा जो शरीर छोड़ दिया जाता है वह पृथिवीकाय कहलाता है । यथा-मरे हुए मनुष्य का शरीर-शव ।
पृथिवी कायिक - जिस जीव के पृथ्वी रूप काय विद्यमान है, उसे पृथिवी कायिक कहते
पृथ्वी जीव - कार्मण काययोग में स्थित जिस जीव ने जब तक पृथिवी को काय रूप में ग्रहण नहीं किया है तब तक वह पृथ्वी जीव कहलाता है । (सर्वा. 286)
प्रश्न:-7पृथिवीकायिक जीव कौन-कौन से हैं?
उत्तर-मिट्टी, बालू शर्करा, स्फटिकमणि, चन्द्रकान्तमणि, सूर्यकान्तमणि, गेरू, चन्दन (एक पत्थर होता है, कारंजा में इस पत्थर की प्रतिमा है) हरिताल, हिंगुल, हीरा, सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा आदि छत्तीस प्रकार के पृथिवीकायिक जीव हैं । (बू 206 - 9)
प्रश्न:-8जल कितने प्रकार का है?
उत्तर-जल चार प्रकार का है- 1. जल 2. जलकाय 3. जलकायिक 4 जलजीव ।
जल - जो जल आलोड़ित हुआ है, उसे एवं कीचड़ सहित जल को जल कहते हैं ।
जलकाय - जिस जलकायिक में से जीव नष्ट हो चुके हैं अथवा गर्म पानी जलकाय है ।
जलकायिक - जल जीव ने जिस जल को शरीर रूप में ग्रहण किया है, वह जलकायिक
जलजीव - विमगति में स्थित जीव जो एष्क दो या तीन समय में जल को शरीर रूप में ग्रहण करेगा, वह जल जीव है । (मिसादी. 11? 14 - 15)
प्रश्न:-9जलकायिक जीव कौन-कौन से हैं?
ओस, हिम (बर्फ), कुहरा, मोटी बूँदें, शुद्ध जल, नदी, सागर, सरोवर, कुआ, झरना, मेघ से बरसने वाला जल, चन्द्रकान्तमणि से उत्पन्न जल, घनवात आदि का पानी जलकायिक जीव है । (भू 21० आ.)
प्रश्न:-10-अग्नि कितने प्रकार की होती है?
उत्तर- अग्नि चार प्रकार की होती है-
1अग्नि 2. अग्निकाय 3. अग्निकायिक 4. अग्निजीव ।
अग्नि - प्रचुर भस्म से आच्छादित अग्नि अर्थात् जिसमें थोड़ी उष्णता है वह अग्नि है ।
अग्निकाय - भस्म आदि से अथवा जिस अग्निकायिक को अमि जीव ने छोड़ दिया है वह अग्निकाय है ।
अग्निकायिक - जिस अग्नि रूपी शरीर को अग्नि जीव ने धारण कर लिया है वह अग्निकायिक
अग्निजीव - जो जीव अग्नि रूप शरीर को धारण करने के लिए जा रहा है, विग्रहगति में स्थित है, ऐसा जीव अग्नि जीव है । (सि. सा. दी. 11 ' 17 - 18)
प्रश्न:-11अग्निकायिक जीव कौन- कौन से हैं?
उत्तर-अंगारे, ज्वाला, लौ, मुर्मुर, शुद्धाग्रि और अग्नि ये सब अग्निकायिक जीव हैं ।
अंगारे, ज्वाला, लौ, मुर्मुर, शुद्धअग्नि, धुआँ सहित अग्नि, बढ़वाग्रि, नन्दीश्वर के मंदिरों में रखे हुए धूप घटों की अग्नि, अग्निकुमार देवों के मुकुटों से उत्पन्न अग्नि आदि सभी अग्निकायिक जीव हैं । १- 211 आ.)
प्रश्न:-12वायु कितने प्रकार की है?
उत्तर-वायु चार प्रकार की है - 1? वायु 2. वायुकाय 3. वायुकायिक 4. वायुजीव ।
वायु - धूलि का समुदाय जिसमें है ऐसी भ्रमण करनेवाली वायु, वायु है ।
वायुकाय - जिस वायुकायिक में से जीव निकल चुका है, ऐसी वायु का पौद्गलिक वायुदेह वायुकाय है ।
वायुकायिक - प्राण युक्त वायु को वायुकायिक कहते हैं ।
वायुजीव - वायु रूपी शरीर को धारण करने के लिए जाने वाला ऐसा विग्रहगति में स्थित जीव वायु जीव है । (मिसा. दी. 11० - 21)
प्रश्न:-13वायुकायिक जीव कौन-कौनसे हैं?
उत्तर-घूमती हुई वायु, उत्कलि रूप वायु, मण्डलाकार वायु, गुजावायु, महावायु, घनोदधि वातवलय की वायु और तनु-वातवलय की वायु से सब वायुकायिक जीव हैं । ( पू 212 आ.)
प्रश्न:-14पृथ्वी आदि वनस्पति पर्यन्त कौनसी गति के जीव हैं? ।
उत्तर-पूजा आ।दे वनस्पति पर्यन्त सभी तिर्यञ्चगति के जीव हैं । ये पाँचों स्थावर कहलाते हैं' । लेकिन स्थावर कोईगति नहीं है । कहा भी है- औपपादिकमनुष्येथ्य: शेषास्तिर्यग्योनय: (न. लू: 4? 27) अर्थात् उपपाद जन्म वाले देव, नारकी और मनुष्यों को छोड्कर शेष सभी तिर्यव्व हैं ।
प्रश्न:-15स्थावर जीवों के कृष्णलेश्या कैसे सिद्ध होती है?
उत्तर-तीव्रक्रोध, वैरभाव, क्लेश संताप, हिंसा से युक्त तामसी भाव कृष्णलेश्या के प्रतीक हैं । तस्मानिया के जंगलों में ' होरिजन्टिल-स्कन' नामक वृक्षों की डालियाँ व जटायें जानवरों या मनुष्यों के निकट आते ही उनके शरीर से लिपट जाती हैं । तीव्र कसाव से (कस जाने के कारण) जीव उससे छुटकारा पाने की कोशिश करते हुए अन्तत: वहीं मरण को प्राप्त हो जाता है, इस क्रिया से उनकी हिंसात्मक प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से समझ में आती है, यह कृष्ण लेश्या की प्रतीक है ।
प्रश्न:-16स्थावरों में नीललेश्या कैसे समझ में आती है?
उत्तर-आलस्य, मूर्खता, भीरुता, अतिलोलुपता आदि नीललेश्या के प्रतीक हैं । कई वनस्पतियाँ आलसी एन्यै हठी होती हैं । उनके बीज सुपुप्तावस्था में पड़े रहते हैं । शंख पुष्पी, बथुआ, बैंगन आदि के बीजों को अंकुरित कराने के लिए उपचारित करना पड़ता है उन्हें उच्चताप, निम्नताप, प्रकाश, अन्त, पानी या रासायनिक पदार्थों से सक्रिय किया जाता है तभी वे अंकुरित होते हैं । इसी प्रकार तम्बाखू गोखरू, सिंघाड़ा आदि की भी स्थिति है । कलश, पादप, सनद? आदि पौधे गध, रंग, रूप आदि से कीड़ों को आकर्षित करते है । उन्हें खाने की लोलुपता इनमें विशेष रहती है । युटीकुलेरियड का पौधा स्थिर पानी में उगता है । इसकी पत्तियाँ सुई के आकार की होती हैं और पानी में तैरती हैं । पत्तियों के बीच में छोटे-छोटे हरे रग के गुब्बारे के आकार के फूले अंग रहते हैं । पौधा इन्हीं गुब्बारों से कीड़ों को पकड़ता है । गुब्बारे की भीतरी दीवारों से पौधा एक रस छोड़ता है कीड़ों को नष्ट कर देता है इसे इसकी अतिलोलुपता अर्थात् नील लेश्या का प्रतीक माना जा सकता
प्रश्न:-17स्थावरों में कापोतलेश्या को कैसे समझा जा सकता है?
उत्तर-निन्दा, ईर्षा, रोष, शोक, अविश्वास आदि कापोत लेश्या के लक्षण हैं । इस लेश्या वाले दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले होते हैं । नागफनी, काकतुरई, क्रौंच, चमचमी आदि वनस्पतियाँ काँटे, दुर्गन्ध या खुजली पहुँचाने वाले होते हैं । इनको छूने से या इनके निकट जाने से कुछ कष्ट अवश्य होता है । इसे कापोतलेश्या के रूपमें स्वीकार किया जा सकता है । अशुभलेश्या के उदाहरण वनस्पति में स्पष्ट रूपसे समझ में आते हैं । पृथ्वी आदिमें इनका स्पष्टीकरण नहीं होता है फिर भी पानी में भँवर आना, वायु में चक्रवात, अग्नि में बड़वानल, दावानल, ज्वालामुखी आदि प्रवृत्तियों से अशुभलेश्याओं का अनुमान लगाया जा सकता
प्रश्न:-18क्या पृथ्वीकायिकादि पाँचों स्थावरों में सासादन गुणस्थान होता है?
उत्तर-पृथ्वीकायादि पाँचों स्थावरों में सासादन गुणस्थान सम्बन्धी दो विचार हैं -
( 1) इन्द्रिय मार्गणा की अपेक्षा एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं । यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि उक्त जीवों में सासादन गुणस्थान निर्वृत्यपर्याप्त दशा में ही सम्भव है, अन्यत्र नहीं; क्योंकि पर्याप्त दशा में तो वहाँ एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है । (पं. सं. प्रा.)
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असैनी में तो अपर्याप्त तथा सैनी के पर्याप्त- अपर्याप्त अवस्था में सासादन गुणस्थान होता है । (गो. जी. जी. 695)
एकेन्द्रियों में जाने वाले वे जीव बादर पृथिवीकायिक, बादरजलकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्यासको में ही जाते हैं, अपर्यातकों में नहीं । ४.०)
(2)कौन कहता है कि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियों में होते है? किन्तु वे उस एकेन्द्रिय में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं ऐसा हमारा निश्चय है, न कि वे अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं; क्योंकि उनमें आयु के छिन्न होने के समय सासादन गुणस्थान नहीं पाया जाता है । ९.) सासादन सम्यग्दृष्टियों की एकेन्द्रियों में उत्पत्ति नहीं है । (य. 7)
प्रश्न:-19पृथ्वीकायिकादि में कितनी व कौन-कौन सी अविरतियों होती हैं?
उत्तर-पृथ्वीकायिकादि में सात अविरतियाँ होती हैं - षट्कायिक जीवों की हिंसा के अत्यागरूप छह तथा स्पर्शन इन्द्रिय को वश में नहीं करने रूप एक = कुल सात ।
तालिका संख्या 9
वनस्पति कायिक
क्रम | संख्या | स्थान | विवरण | विशेष |
---|---|---|---|---|
1 | गति | 1 | तिर्यव्यगति | |
2 | इन्द्रिय | 1 | एकेन्द्रिय | |
3 | काय | 1 | स्वकीय | वनस्पति कायिक |
4 | योग | 3 | औदारिकद्विक, कार्मण | |
5 | वेद | 1 | नपुंसक | |
6 | कषाय | 23 | 16 क. 7 नो.क. | स्त्री तथा पुरुषवेद नहीं हैं |
7 | ज्ञान | 2 | कुमति, कुश्रुत | |
8 | संयम | 1 | असंयम | |
9 | दर्शन | 1 | अचखुदर्शन | |
10 | लेश्या | 3 | कृ. नी. का. | शुभ लेश्या नहीं होती है |
11 | भव्य | 2 | भव्य, अभव्य | |
12 | सम्यक्त्व | 2 | मिथ्यात्व, सासादन | |
13 | संज्ञी | 1 | असैनी | |
14 | आहार | 2 | आहारक, अनाहारक | |
15 | गुणस्थान | 2 | मिथ्यात्व, सासादन | |
16 | जीवसमास | 6 | वनस्पति सम्बन्धी | |
17 | पर्याप्ति | 4 | आ. श. इ. श्वा. | |
18 | प्राण | 4 | 1 इ. 1 ब. श्वा. आ. | स्पर्शन इन्द्रिय होती है । |
19 | संज्ञा | 4 | आ. भ. मै. पीर. | |
20 | उपयोग | 3 | 2 ज्ञानो. 1 दर्शनो. | |
21 ध्यान | 8 | 4 आ. 4 रौ. | ||
22 आसव | 38 | 5 मि. 7 अ. 23 क. 3 यो. | ||
23 | जाति | 24 लाख | वनस्पति सम्बन्धी | नित्यनिगोद तथा इतरनिगोद सम्बन्धी जाति भी ग्रहण करना चाहिए । |
24 | कुल | 28 ला.क. | वनस्पति सम्बन्धी |
प्रश्न:-20वनस्पति जीव कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर-वनस्पति जीव चार प्रकार के हैं- 1. वनस्पति, 2 ए वनस्पति काय, 3३ वनस्पतिकायिक 4. वनस्पति जीव ।
वनस्पति - जिसका अध्यन्तर भाग जीवयुक्त है, और बाह्य भाग जीव रहित है, ऐसे वृक्ष आदि को वनस्पति कहते है ।
वनस्पतिकाय - छिन्न- भिन्न किये गये तृण आदि को वनस्पतिकाय कहते हैं ।
वनस्पतिकायिक - जिसमें वनस्पतिकायिक जीव पाये जाते हैं उन्हें वनस्पतिकायिक जीव कहते हैं ।
वनस्पतिजीव - आयु के अन्त में पूर्व शरीर को त्याग कर जो जीव वनस्पतिकायिकों में उत्पन्न होने के लिए विग्रहगति में जा रहा है, उसे वनस्पति जीव कहते हैं । (सिसादी. 11 ' 22 - 25)
प्रश्न:-21वनस्पति जीव कौन- कौनसे होते हैं?
उत्तर-पर्व, बीज, कन्द, स्कन्ध तथा बीजबीज, इनसे उत्पन्न होने वाली और सम्पूर्छिम वनस्पति कही गयी है । जो प्रत्येक और अनन्तकाय ऐसे दो भेद रूप है । ग्ल में उत्पन्न होने वाली वनस्पतियाँ अ बीज हैं, जैसे-हल्दी आदि । (गो. जी. 186)
प्रश्न:-22वनस्पति कितने प्रकार की होती है?
उत्तर-वनस्पति दो प्रकार की होती है- 16 साधारण वनस्पति 2. प्रत्येक वनस्पति ।
प्रश्न:-23साधारण वनस्पति किसे कहते हैं?
उत्तर-बहुत आत्माओं के उपभोग के हेतु रूप से साधारण शरीर जिसके निमित्त से होता है, वह साधारण शरीर नामकर्म है । जिस कर्म के उदय से जीव साधारण शरीर होता है उस कर्म की साधारण शरीर यह संज्ञा हे । (य. 6)
जिस कर्म के उदय से एक ही शरीर वाले होकर अनन्त जीव रहते हैं, वह साधारण शरीर नामकर्म है । (य. 13? 365)
प्रश्न:-24प्रत्येक वनस्पति किसे कहते हैं?
उत्तर-जिनका प्रत्येक अर्थात् पृथकृ-पृथक् शरीर होता है उन्हें प्रत्येक शरीर कहते हैं । जैसे-खैर आदि वनस्पति । ७.०)
जिस जीव ने एक शरीर में स्थित होकर अकेले ही सुख-दुःख के अनुभव रूप कर्म उपार्जित किया है वह जीव प्रत्येक शरीर है । (य. 3 ' 333)
प्रश्न:-25स्थावर और एकेन्द्रिय में क्या अन्तर है?
उत्तर-एकेन्द्रिय नामकर्म में इन्द्रिय की मुख्यता है और स्थावर नामकर्म में काय की मुख्यता है । एकेन्द्रिय जीवों के एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है और स्थावर जीवों के पृथ्वीकायिक आदि नामकर्म का उदय होता है ।
प्रश्न:-26वनस्पति-कायिक सम्बन्धी कितने जीवसमास हैं?
उत्तर-वनस्पतिकायिक सम्बन्धी छह जीवसमास हैं-
1. नित्यनिगोद ' 2. नित्यनिगोद बादर ।
3. इतरनिगोद सूक्ष्म
4. इतरनिगोद बादर ।
5. सप्रतिष्ठित प्रत्येक
6. अप्रतिष्ठित प्रत्येक ।
प्रश्न:-27वनस्पति सम्बन्धी 24 लाख जातियाँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तर-वनस्पति सम्बन्धी 24 लाख जातियाँ-
नित्यनिगोद की - 7 लाख, इतरनिगोद की 7 लाख, तथा वनस्पति कायिक की 1० लाख .मर
नोट - नित्यनिगोद एवं इतर निगोद को वनस्पतिकायिक में ग्रहण नहीं करने पर 1० लाख जातियाँ ही होती हैं ।
प्रश्न:-28क्या ऐसे कोई वनस्पतिकायिक जीव हैं, जिनके कार्मण काययोग होता ही नहीं ३ है ?
उत्तर-ही, जो वनस्पतिकायिक जीव अनुगति से जाते हैं, उनके कार्मण काययोग नहीं होता है । नोट : इसी प्रकार ऋजुगति से जाने वाले सभी जीवों के जानना चाहिए ।
तालिका संख्या 10
त्रसकायिक
क्रम | स्थान | संख्या | विवरण | विशेष |
---|---|---|---|---|
1 | गति | 4 | न.ति.म.दे. | |
2 | इन्द्रिय | 4 | द्वी. त्री. चतु. पंचे. | |
3 | काय | 1 | त्रस | |
4 | योग | 15 | 4 मनो. 4 व. 7 काय. | मनोयोग सैनी जीवों के ही होते हैं । |
5 | वेद | 3 | स्त्री. पुरु. नपु. | |
6 | कषाय | 25 | 16 कषाय 9 नोकषाय | |
7 | ज्ञान | 8 | 3 कुज्ञान. 5 ज्ञान | 5 ज्ञान सम्यग्दृष्टि के ही होते हैं । |
8 | संयम | 7 | सा.छे.प.सू.यथा.संय.असं. | |
9 | दर्शन | 4 | चक्षु. अच. अव. केव. | केवलदर्शन मनुष्यों में ही होता है। |
10 | लेश्या | 6 | कृ.नी.का.पी.प.शु. | |
11 | भव्यत्व | 2 | भव्य, अभव्य | |
12 सभ्यक्ल | 6 | क्ष.क्षायो..उ.सा.मिश्र.मि. | ||
13 | संज्ञी | 2 | सैनी, असैनी | असैनी जीव तिर्यच्चों में ही होते हैं। |
14 | आहार | 2 | आहारक, अनाहारक | |
15 | गुणस्थान | 14 | पहले से 14 वें तक | |
16 | जीवसमास | 5 | द्वी.त्री.चतु.सै.असैनी पंचे. | |
17 | पर्याप्ति | 6 | आ. श. इ. श्वा. भा. म. | मनःपर्याप्ति सैनी जीवों के ही होती है। |
18 | प्राण | 5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ. | ||
19 | संज्ञा | 4 | आ.भ.मै. पीर. | |
20 | उपयोग | 12 | 8 ज्ञानो. 4 दर्शनो. | |
21 | ध्यान | 16 | 4 ओ. 4 रौ. 4 ध. 4 शु. | |
22 | आस्रव | 57 | 5 मि.12 अवि.25 क.15 यो. | |
23 | जाति | 32 ला. | द्वी. 2 ला., त्री. 2 ला., चतु.2 ला. पंचे. 26 लाख | पंचेन्द्रिय में नारकी, देव, मनु- तिर्य सबको ग्रहण करना चाहिए । |
24 | कुल | 132 1/2ला.क. | द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त सभी जीवों के कुल |
प्रश्न28 : त्रस जीव कितने प्रकार के हैं?
उत्तर : त्रस जीव दो प्रकार के हैं- 1 विकलेन्द्रिय 2, सकलेन्द्रिय ।
विकलेन्द्रिय - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीवों को विकलेन्द्रिय जानना चाहिए ।
सकलेन्द्रिय - सिंह आदि थलचर, मच्छ आदि जलचर, हँस आदि आकाशचर तिर्यब्ज और देव, नारकी, मनुष्य ये सब पंचेन्द्रिय हैं १- 218 - 1 आ.)
अथवा - त्रस जीव 1, पर्याप्त तथा 2 ' अपर्याप्त के भेद से भी दो प्रकार के हैं । ४.? 272) त्रस जीव चार प्रकार के हैं- 1? द्वीन्द्रिय 2 श् त्रीन्द्रिय 3 चतुरिन्द्रिय 4. पंचेन्द्रिय । (न. च. 122)
प्रश्न29- ऐसे कौनसे त्रस जीव हैं, जिनके औदारिक काययोग नहीं होता है?
उत्तर :वे त्रस जीव जिनके औदारिक काययोग नहीं होता है-
1 विग्रहगति, निर्वृत्यपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था में स्थित त्रस जीव ।
2. चौदहवें गुणस्थान वाले अयोग केवली भगवान (इनके योग ही नहीं होता है) 3 देव-नारकी ।
4. एक समय में एक जीव के एक ही योग होता है इसलिए किसी भी योग के साथ कोई भी योग नहीं होता है ।
प्रश्न३०- क्या ऐसे कोई त्रस जीव हैं जिनके वेद का अभाव हो गया हो?
उत्तर :ही, नवम गुणस्थान की अवेद अवस्था से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक स्थित त्रस जीवों के वेद का अभाव हो जाता है ।
प्रश्न31--त्रम जीवों की निर्वृत्यपर्याप्तावस्था में कम-से-कम कितने प्राण होते हैं?
उत्तर :त्रस जीवों की निर्वृत्यपर्याप्तावस्था में कम-से-कम 2 प्राण होते हैं । 1? कायबल, 2 व आयु ये दो प्राण तेरहवें गुणस्थान वाले केवली
प्रश्न 32- भगवान की समुद्घात अवस्था में होते हैं । क्या ऐसे कोई त्रस्र जीव हैं जिनके संज्ञाएँ नहीं होती हैं?
उत्तर :ही, ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के त्रस जीवों के आहारादि कोई संज्ञाएँ नहीं होती हैं । (गो.जीजी. 702)
प्रश्न३३- क्या ऐसा कोई त्रस जीव है, जिसके जीवन में सभी उपयोग हो जावें?
उत्तर :ही, किसी एक तद्भव मोक्षगामी मनुष्य के अपने जीवनकाल में सभी उपयोग हो सकते हैं, अन्य किसी जीव के नहीं हो सकते ।
जैसे-किसी मिथ्यादृष्टि मनुष्ये ने सम्यग्दर्शन प्राप्त करके अवधिज्ञानो. प्राप्त कर लिया तो उसके मति, भुल, अवधिज्ञानो. होगा । फिर वही सम्बक्ल से क्षत हुआ तो उसके कुमति, कुश्रुत तथा कुअवधिज्ञान होगा ।
वही पुन: सम्यग्दर्शन प्राप्त कर मुनि बनकर मनःपर्ययज्ञानो. प्राप्त कर ले तो उसके चार ज्ञानो. हो जायेंगे ।
वही जब चार घातिया कर्मों को नष्ट कर देता है तो उसके केवलज्ञानने, हो जायेगा । चक्षु तथा अचखुदर्शनी. सभी मनुष्यों के होते हैं जिसने अवधिज्ञानो. प्राप्त किया उसके अवधि दर्शनो. होगा तथा घातिया कर्म क्षय करने पर केवलदर्शनो. हो जायेगा । इस प्रकार एष्क मनुष्य अपने जीवनकाल में सभी उपयोग प्राप्त कर सकता है, लेकिन छद्मस्थ' जीवों के एक समय में एक ही उपयोग होता है और केवली भगवान के दर्शन तथा ज्ञान दोनों उपयोग एक साथ होते हैं ।
नोट - कुमति, कुसुत, कुअवधिज्ञानो. सम्बक्ल प्राप्त होने के पहले भी होते हैं ।
त्रम जीवों के कम- से-कम कितने आसव के प्रत्यय होते हैं ।
त्रस जीवों के कम-से-कम 7 आसव के प्रत्यय होते हैं ।
तेरहवें गुणस्थान में मात्र 7 योग ही आसव के कारण है । सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाय तो मनोयोग और वचनयले का निरोध हो जाने पर (उस अवस्था में स्थित सभी जीवों के) मात्र एक औदारिक काययोग ही आसव का कारण बचता है । इस अपेक्षा त्रस जीवों के कम-से- कम एक आसव भी कहा जा सकता है ।
अयोगी भगवान भी त्रस हैं, उनके एष्क भी आसव का प्रत्यय शेष नहीं है ।
प्रश्न३४- क्या सभी त्रस जीवों के 57 आसव के प्रत्यय हो सकते हैं?
उत्तर :नहीं, नाना जीवों की अपेक्षा त्रस जीवों के कुल मिलाकर सत्तावन आसव के प्रत्यय हो जाते हैं-
सत्यमनो. सत्य वचनयोग तथा - संज्ञीपंचेन्द्रिय से 1 वें गुणस्थान तक । अनुभय मनोयोगअसत्य उभय मन तथा वचन योग - संज्ञीपचेन्द्रिय से १-, गुणस्थान तक । अनुभयवचनयोग - द्वीन्द्रिय से 1 वें गुणस्थान तक ।
औदारिकद्विक - मनुष्य-तिर्यच्चों के ।
वैक्रियिकद्विक - देव-नारकियों के ।
आहारकद्बिक - छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज के ।
1 छ जो ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कर्म के उदय में स्थित होते हैं उन्हें छद्यस्थ कहते हैं । ये 1 वें गुणस्थान तक पाये जाते हैं ।
कार्मणकाययोग .... - चारों गति की अपेक्षा कहा गया है । 5 मिथ्यात्व और 23 कवायें - मिथ्यादृष्टि नारकी एवं समर्चन पंचे. एं तथा विकलत्रय की अपेक्षा ।
स्त्रीवेद पुरुषवेद - देव, मनुष्य तथा पंचेन्द्रिय तिर्यच्चों की अपेक्षा ।
12 'अविरति - मात्र संज्ञी पंचेन्द्रिय के ही हो सकती
नोट - द्वीन्द्रिय आदि जीवों के बारह में से कुछ-कुछ अविरतियाँ होती हैं ।
प्रश्न35--त्रम जीवों की 32 लाख जातियों कौन-कौन सी हैं?
उत्तर :त्रस जीवों की 32 लाख जातियाँ -
( 1) द्वीन्द्रिय की - 2 लाख (2) त्रीन्द्रिय की - 2 लाख
(3) चतुरिन्द्रिय की - 2 लाख (4) पंचेन्द्रिय तिर्यंच की - 4 लाख
(5) नारकियों की - 4 लाख (6) देवों की - 4 लाख
(7) मनुष्य की - 14 लाख
'प्रश्न36-त्रस जीवों के 132 -ा? लाखकरोड़ कुल कौन- कौनसे हैं?
उत्तर :त्रस जीवों के 132 -2 लाखकरोडू कुल- द्वीन्द्रियों के - 7 लाखकरोड़ नारकियों के - 25 लाखकरोड़ एए? ?? त्रीन्द्रियोंके - 8 लाखकरोडू देवों के - 26 लाखकरोडू चतुरिन्द्रिय के - 9 लाखकरोड़ मनुष्यों के - 14 लाखकरोड़
पंचेन्द्रिय तिर्यच्चों में-जलचरों के 12 -ा? लाखकरोड़, थलचरों के 19 लाखकरोड़, नभचरों के 12 लाखकरोड़ zZ 132 -ा? लाखकरोड़ ।
- समुच्चय प्रश्नोत्तर -
प्रश्न37- ऐसी कौनसी कषायें हैं जो त्रस्र जीवों के तो होती हैं लेकिन स्थावर जीवों के नहीं होती हैं?
उत्तर :मात्र दो कवायें ऐसी हैं जो त्रस जीवों के होती हैं लेकिन स्थावर जीवों के नहीं होती- स्त्रीवेद और पुरुषवेद नोकषाय ।
प्रश्न38-ऐसी कौनसी अविरति हैं जो त्रस तथा स्थावर दोनों के होती हैं?
उत्तर :7 अविरतियाँ त्रस तथा स्थावर दोनों जीवों के होती हैं-
षट्काय की हिंसासम्बन्धी तथा स्पर्शन इन्द्रिय सम्बन्धी ।
प्रश्न39- चौबीस स्थानों में से ऐसे कौन से स्थान हैं जिनके सभी उत्तरभेद त्रसों में पाये जाते ई?
उत्तर :चौबीस स्थानों में से 19 स्थान ऐसे हैं जिनके सभी उत्तर भेद त्रसों में पाये जाते हैं- 1. गति 2. योग 3. वेद 4. कषाय5. ज्ञान 6. संयम 7. दर्शन 8. लेश्या 9 भव्य 1०. सम्बक्ल 11 संज्ञी 12. आहारक13. गुणस्थान 14. पर्याप्ति 15. प्राण 16. सज्ञा17 उपयोग 18. ध्यान 19 आसव के प्रत्यय
प्रश्न40- स्थावर जीवों में किस- किस स्थान के सभी उत्तरभेद नहीं पाये जाते हैं?
उत्तर :स्थावर जीवों में 21 स्थानों के सभी उत्तर भेद नहीं पाये जाते हैं-
1. भव्य 2. आहारक 3. संज्ञा, इन तीन स्थानों को छोड्कर शेष सभी स्थानों के सभी उत्तर भेद स्थावर जीवों में नहीं पाये जाते हैं । अर्थात् गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, सम्बक्च, संज्ञी, गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, उपयोग, ध्यान, आसव के प्रत्यय, जाति तथा कुल इन 21 स्थानों के सभी उत्तर भेद नहीं होते हैं ।
प्रश्न41--ऐसे कौन- कौनसे उत्तर भेद हैं जो त्रसों में होते हैं लेकिन स्थावरों में नहीं होते हैं?
उत्तर :वे उत्तर भेद जो त्रसों में होते हैं लेकिन स्थावरों में नहीं होते हैं-
क्रम | संख्या | स्थान | विवरण |
---|---|---|---|
2 | 4 | इंद्रियाँ | द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय,पंचेन्द्रिय |
3 | 1 | काय | त्रस |
4 | 12 | योग | 4 म. 4 व 4 काययोग । |
5 | 2 | वेद | स्त्रीवेद , पुरुषवेद |
6 | 2 | कषाय | स्त्रीवेद , पुरुषवेद |
7 | 6 | ज्ञान | 5 ज्ञान 1 कुअवधिज्ञान |
8 | 6 | संयम | असंयम को छोडकर शेष संयम |
9 | 3 | दर्शन | चक्षु, अवधि, केवलदर्शन |
10 | 3 | लेश्या | पीत, पद्म, शुक्ल |
11 | सम्यक्त्व | मिथ्यात्व और सासादन को छोड्कर । | |
12 | 1 | संज्ञी | सैनी |
13 | 12 | गुणस्थान | तीसरा आदि 12 गुणस्थान |
14 | 5 | जीवसमास | 5 जीवसमास |
15 | 2 | पर्याप्ति | भाषा तथा मन |
16 | 6 | प्राण | 4 इन्द्रिय, वचनबल, मनोबल |
17 | 9 | उपयोग | 6 ज्ञानो. 3 दर्शनो. |
18 | 8 | ध्यान | 4 ध. 4 शु. |
19 | 19 | आसव के प्रत्यय | 5 अविरति. 2 वेद, 12 योग |
2० | जाति | 32 लाख | |
21 | कुल | 132 -1/२ लाख करोड़ |
प्रश्न42- ब्रस्र काय की जाति एवं पंचेन्द्रिय की जाति में क्या अन्तर है?
त्रस काय की जातियों से पंचेन्द्रिय जीवों में 6 लाख जातियों का अन्तर है । अर्थात् त्रसकाय में 32 लाख जातियाँ हैं तथा पंचेन्द्रिय जीवों की मात्र 26 लाख जातियाँ हैं । त्रस जीवों में विकलत्रय की जातियाँ भी होती हैं, पंचेन्द्रियों में नहीं ।
प्रश्न43- किस काय वाले के सबसे ज्यादा कुल होते हैं?
उत्तर :त्रसकायिक जीवों के कुल सबसे ज्यादा हैं क्योंकि उनमें द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, देव-नारकी-मनुष्य तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच सबके कुलों का ग्रहण हो जाता है । स्थावरकाय में केवल एकेन्द्रिय जीवों के. कुलों का ही ग्रहण होता है । त्रसों के 132 र? लाख करोड़ तथा पृथ्वीकायिकादि पाँच कायिक में केवल 67 लाख करोड़ कुल होते हैं ।
प्रश्न44- जलकायिक के कुल के बराबर कुल कौनसी कायवालों के होते हैं?
उत्तर :जलकायिक के कुल के बराबर कुल वायुकायिक जीवों के होते है । दोनों में प्रत्येक के 7 लाख करोड़ कुल होते हैं ।