10सद्बोधचन्द्रोदयाधिकार
विषय सूची
- १ सद्वोधचन्द्रोदयाधिकार
- २ अब आचार्य इस बात को बताते हैं कि वह चैतन्यरूपी तत्त्व मन आदि के प्रत्यक्ष न होकर भी स्वानुभव गम्य है
- ३ अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि जो मनुष्य आत्मीक वस्तु में तत्पर हैं वे ही उत्कृष्ट ध्यान के पात्र हैं।
- ४ आत्मीकतत्त्व के पाने वाले ही स्वस्वरूप के पाने वाले समझे जाते हैं इस बात को आचार्य दिखाते हैं।
- ५ अब आचार्य द्वैत’ तथा अद्वैतभाव का निषेध वर्णन करते हैं।
- ६ शुद्धज्ञानस्वरूप वस्तु ही रमणीकस्थान है इस बात को आचार्य दिखाते हैं।
- ७ संसार में चैतन्यरूपी दीपक ही देदीप्यमान है इस बात को आचार्य दिखाते हैं।
- ८ आचार्यवर परमात्मा के नाम मात्र के लेने से ही क्या लाभ होता है इस बात को बतलाते हैं।
- ९ अब आचार्य लोक के उद्धार का उपाय बताते हैं।
सद्वोधचन्द्रोदयाधिकार
यत्र स्वानुभवस्थितेऽपि विरला लक्ष्यं लभन्ते चिरात्तन्मोक्षैकनिबन्धनं विजयते चित्तत्त्वमत्यद्भुतम् ।।
अर्थ —मोक्षरूपी सुख के देने वाले जिस आत्मतत्व को भलीभांति जानता हुवा तथा बुद्धिमान भी बृहस्पति वाणी से कुछ भी वर्णन नहीं कर सकता है यदि किसी रीति से वर्णन भी करे तो भी अत्यन्त विस्तीर्ण होने के कारण आकाश के समान मनुष्यों के हृदय में उसको समाविष्ट नहीं कर सकता है और स्वानुभव में स्थित होकर विरलेही प्राणी जिस आत्मतत्त्व को लक्ष्य में लाते हैं ऐसा वह अत्यन्त आश्चर्य का करने वाला आत्मतत्त्व सदा इस लोक में जयवन्त है।
भावार्थ — यह आत्मतत्त्व कठिन तो इतना है कि जिसको साधारण पंडितो की तो क्या बात साक्षात वृहस्पति भी वर्णन नहीं कर सकते और विस्तृत इतना है कि वह किसी के हृदय में आकाश की तरह प्रविष्ट नहीं हो सकता अर्थात् जिस प्रकार आकाश अधिक लम्बा चौड़ा है इसलिये वह किसी जगह पर नही आ सकता उसी प्रकार यह आत्मतत्त्व भी इतना विस्तृत है कि साधारणरीति से मनुष्य समझ नहीं सकते और अनेक प्रकार के प्रयत्न करने पर विरले ही मनुष्य इस आत्मतत्त्व को लक्ष्य में ला सकते हैं ऐसा समस्त मोक्ष आदि उत्तम सुखों का देने वाला आत्म तत्त्व सदा इस लोक में जयवंत है।।१।।
तज्जीयादखिल श्रुताश्रयशुचिज्ञानप्रभाभासुरो यस्मिन् वस्तुविचारमार्ग चतुरो य: सोऽपि संमुह्यति ।।२।।
अर्थ —जो चैतन्यरूपी तत्त्व नित्य तथा अनित्यपने से और गुरू तथा लघुपने से तथा एकरूप और अनेक रूपपने से तथा सत्रूप और असत्रूपपने से अत्यंत गहन है और जो पूर्ण तथा शून्य भी है ऐसा आत्मतत्त्व सदा इस लोक में जयवंत है जिस आत्मतत्त्व में समस्तशास्त्रों के अभ्यास से पाई हुई जो ज्ञान की प्रभा उससे देदीप्यमान तथा वास्तविक पदार्थों के विचार करने में चतुर मनुष्य भी मुग्ध हो जाता है अर्थात् उसको भी इस चैतन्य (आत्म) तत्व का पता नहीं लगने पाता।
भावार्थ — जो चैतन्यरूपी तत्त्व द्रव्य की अपेक्षा तो नित्य है तथा पर्याय की अपेक्षा अनित्य है और जो संसारावस्था में कर्मों के जरिये से भारी होने पर भी कर्मरहित अवस्था में हलका है तथा जो स्वद्रव्य की अपेक्षा एकरूप है तथा पर्याय की अपेक्षा अनेकरूप है और जो स्वचतुष्टय की अपेक्षा पूर्ण है तथा परद्रव्यादि चतुष्ट की अपेक्षा असत् स्वरूप है तथा जो चैतन्यरूपी तत्त्व स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा पूर्ण है तथा परद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा शून्य है ऐसा यह अत्यंत गहन आत्मतत्त्व इसलोक में सदा जयवंत है और समस्तशास्त्रों के अभ्यास से जिन महापुरूषों ने ज्ञानरूपी प्रभा को पाकर अपनी आत्मा को देदीप्यमान बनाया है और वास्तविक पदार्थों के विचार करने में जिनकी बुद्धि अत्यंत प्रवीण है ऐसे महापुरूष भी उस आत्मतत्त्व की खोज नहीं कर सकते हैं अर्थात् वास्तविक रीति से उनको भी आत्मतत्त्व का पता नहीं लगता।।२।।
चेतोवृत्तिनिरोधलब्धपरमब्रह्मप्रमोदाम्बुभृत् सम्यक् साम्यसरोवरस्थितिजुषे हंसाय तस्मै नम:।।३।।
अर्थ —जो हंस अत्यंत मनोहर भी अणिमा आदि स्वरूप कमलवन से अपनी प्रीति को हटाकर अत्यंत पवित्र मोक्षरूपी हंसिनी में अपनी दृष्टि को देता हुवा ऐसे उस चित्त की वृत्ति के रोकने से प्राप्त हुवा जो परब्रह्म का उत्तम आनंद वही हुवा जल उससे भरा हुवा जो मनोहर समता रूपी सरोवर उसमें स्थिति करने वाले प्रिय हंस के लिये नमस्कार है।
भावार्थ —हंस का अर्थ आत्मा भी है तथा हंस भी है जिस प्रकार हंस अत्यंत मनोहर भी कमलवन को छोड़कर और अत्यंत शुभ्र हंसिनी में दृष्टि को लगाकर जल के भरे हुवे उत्तम सरोवर में प्रीति पूर्वक निवास करता है उसी प्रकार जो आत्मा अणिमा महिमा आदिक ऋद्धियों की कुछ भी इच्छा न कर तथा अति आदर से मोक्ष में दृष्टि लगाकर समता में लीन होता है उस आत्मा के लिये नमस्कार है।।३।।
चित्स्वरूपमभित: प्रकाशकं शर्मधाम नमताद्भुतं मह:।।४।।
अर्थ —चारों तरफ से प्रकाशरूप तथा नाना प्रकार के कल्याणों का देने वाला और आश्चर्यकारी जो चैतन्य रूपीतेज समीचीन समाधि से जिनकी आत्मा व्याप्त है ऐसे महामुनियों के समस्त रागद्वेष आदि विभावों के नाश होने पर प्रकट होता है उस चैतन्यरूपी तेज के लिये नमस्कार करो।
भावार्थ —यदि सामान्यतया देखा जावे तो जीवमात्र में चैतन्यरूपी तेज मौजूद है किन्तु जो चैतन्यरूपी तेज समस्त रागादिभावों के नाश होने पर प्रकट होता है और जो चौतर्फा प्रकाशरूप तथा समस्त प्रकार के कल्याणों का देने वाला है उस चैतन्यरूपी तेज के लिये नमस्कार है।।४।।
अस्तमेत्यखिलमेवहेलया यत्र तज्ययति चिन्मयं मह: ।।५।।
अर्थ —जो चैतन्यरूपीतेज समस्त पदार्थों का प्रकाश देने वाला है और स्वयं प्रकाश स्वरूप है तथा अंतकर रहित है और यदि समस्तवाणी युगपत् मिल जावें तो भी उसका वर्णन नहीं कर सकती हैं अर्थात् जो वाणी के अगोचर है ऐसा वह चैतन्यरूपी तेज सदा इसलोक में जयवंत है।।५।।
कर्मजाश्रितविकल्परूपिण: का कथा तु वपुषो जडात्मन:।।६।।
अर्थ —समस्त प्रकार के विकल्पों कर रहित जो चैतन्यरूपी तेज किसी भी रीति से मन के भी गोचर नहीं हो सकता, वह चैतन्यरूपी तेज कर्मों से पैदा हुवे नाना प्रकार के विकल्प वही है रूप जिसका तथा जड़ स्वरूप ऐसे शरीर के गोचर कब हो सकता है ? अर्थात् कदापि नहीं हो सकता।।६।।
अब आचार्य इस बात को बताते हैं कि वह चैतन्यरूपी तत्त्व मन आदि के प्रत्यक्ष न होकर भी स्वानुभव गम्य है
शंकनीयमिदमत्र नो यत: स्वानुभूतिविषयस्ततोऽस्ति तत्।।७।।
अर्थ —यदि कोई मनुष्य इस बात की शंका करे कि चैतन्यरूपी तेज न तो मन के गोचर है और न बचन के गोचर है इसलिये आकाश के फूल के समान उसका नास्तित्व हो जायगा तो आचार्य समाधान देते हैं कि ऐसी शंका कदापि नहीं करनी चाहिये क्योंकि वह चैतन्यरूपीतत्त्व स्वानुभव से जाना जाता है इसलिये नास्तित्व न होकर उसका अस्तित्व ही है।
भावार्थ —आकाश का फूल न तो विचार में ही आ सकता है और न उसको देख तथा सुन ही सकते हैं तथा उसको वचन से भी नहीं कह सकते हैं इसलिये जिस प्रकार उसकी अस्तिता नहीं कही जा सकती उसी प्रकार आत्मतत्त्व की भी अस्तिता नहीं बन सकती , क्योंकि यह भी न तो मन के गोचर है और न वचन के गोचर है यदि कोई इस प्रकार की शंका करे तो ग्रंथकार कहते हैं कि इस प्रकार की शंका सर्वथा अयुक्त है क्योंकि वह चैतन्यतत्त्व मन तथा वचन के गोचर न होने पर भी स्वानुभव गोचर है इसलिये आकाश के फूल के समान उसकी नास्तिता न कहकर अस्तिता ही कहनी चाहिये।।७।।
तं विहाय सततं भ्रमत्यद: को विभेति मरणान्न भूतले।।८।।
अर्थ —जिस समय मन परमात्मा में स्थित होता है उस समय उस मन का नाश हो जाता है इसलिये वह मन उस परमात्मा को छोड़कर जहां तहां बाहर भ्रमण करता है क्योंकि पृथ्वीतल में मरण से कौन नहीं डरता है? अर्थात् सर्व ही डरते हैं।
भावार्थ — जब तक मन का संबंध इस आत्मा के साथ में रहता है तब तक वह मन बाह्य पदार्थों में घूमता रहता है इसलिये आत्मा की परिणति भी बाह्य पदार्थों में लगी रहती है किन्तु जिस समय वह आत्मा परमात्मा हो जाता है उस समय इस मन का सर्वथा नाश हो जाता है उस समय इसकी बाह्यपदार्थों में परिणति नहीं लगती इसलिये मन परमात्मा में स्थित न होकर बाह्य पदार्थों में ही घूमता रहता है क्योंकि पृथ्वी तल में जब सब मरण से डरते हैं तो अपने मरण का मन को भी पूरा —२ भय है।।८।।
वस्तु मुष्टिविधृतं प्रयत्नत: कानने मृगयते स मूढधी:।।९।।।
अर्थ — यदि निश्चय से देखा जावे तो चैतन्यरूपी तत्त्व आत्मा में है आत्मा से भिन्न किसी भी स्थान में नहीं है किन्तु जो मनुष्य आत्मा से भिन्न किसी दूसरे स्थान में चैतन्यरूपी तत्त्व रहता है ऐसा समझते हैं तथा जानते हैं वे मूढ़बुद्धि मनुष्य वैसा ही काम करते हैं जैसा कि मुट्ठी में रखी हुई वस्तु को बन में जाकर ढूंढना।
भावार्थ — मुट्ठी में रखी हुई भी वस्तु का बन में जाकर ढूंढ़ना जिस प्रकार व्यर्थ है उसी प्रकार अपने से भिन्न स्थान में चैतन्य का मानना तथा देखना वृथा है इसलिये चैतन्यतत्त्व के खोज करने वाले उत्तम पुरूषों को चैतन्यतत्त्व अपने में ही समझना चाहिये अपने से भिन्न स्थान में नहीं।।९।।
अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि जो मनुष्य आत्मीक वस्तु में तत्पर हैं वे ही उत्कृष्ट ध्यान के पात्र हैं।
नापरेण चलित: पथेप्सिता स्थानलाभविभवो विभाव्यते।।१०।।
अर्थ — यदि कोई मनुष्य मार्ग तो दूसरा है परंतु उसको छोड़कर दूसरे मार्ग से चले तो कदापि उसको अभीष्ट स्थान का लाभ नहीं हो सकता किन्तु ठीक मार्ग पर चले तभी वह अपने अभीष्ट स्थान पर पहुंच सकता है उसी प्रकार जो पुरूष आत्मा में आसक्त हैं वे कदापि उत्कृष्टध्यान के पात्र नहीं और न हो ही सकते हैं इसलिये उत्कृष्ट ध्यान के प्रेमी उत्तम पुरूषों को आत्मा में अवश्य आसक्त रहना चाहिये।।१०।।
अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि जो तपस्वी आत्मस्वरूप में लक्ष्य नहीं देते वे मूर्ख हैं।
अप्रतीतिभुवमाश्रिता जडा भान्ति नाट्यगतपात्रसन्निभा: ।।११।।
अर्थ —अत्यंत गहन ऐसे जिस चैतन्यरूपी तत्त्व में भलीभांति लक्ष्य न देकर जो तपस्वी अज्ञानमयी भूमि को आश्रित है अथार्त् अज्ञानी बन रहे हैं वे तपस्वी जड़ है और वे नाटक के पात्र के समान शोभित होते हैं।
भावार्थ —जिस प्रकार नाटक का पात्र कभी राजा कभी मंत्री स्त्री आदि नाना प्रकार के वेषों को धारण करता है किन्तु वह वास्तविक राजा, मंत्री, स्त्री नहीं कहा जा सकता उसी प्रकार तपस्वी का वेष धारण कर जो तपस्वी चैतन्यरूपी तत्त्व की ओर अपना लक्ष्य नहीं देते वे तपस्वी कहलाने के योग्य नहीं और वे जड़ हैं इसलिये तपस्वियों को चैतन्यरूपी तत्व पर अवश्य ही लक्ष्य देना चाहिये।।११।।
भ्राम्यति प्रचुरजन्मसज्र्टे पातु वस्तदतिशायि चिन्मह:।।१२।।
अर्थ —अज्ञानी पुरूष अंधहस्ति न्याय के समान अनेक धर्मों कर सहित ऐसे चैतन्यतत्त्व को जानकर भी अनेक जन्म संकटों में भ्रमण करता है ऐसा वह अत्यंत अतिशयका भंडार चैतन्यरूपी तेज आपकी रक्षा करो।
भावार्थ —अंधे के आंखों के न होने के कारण वह हाथी के समस्त स्वरूप को नहीं देख सकता इसलिये हाथी के समस्त स्वरूप के अज्ञानी उस अन्धे द्वारा बतलाया हुआ हाथी का स्वरूप जिस प्रकार प्रमाणभूत नहीं माना जाता उसी प्रकार अज्ञानी द्वारा जाना हुवा अनेकान्तात्मकचैतन्य तेज प्रमाणभूत नहीं माना जा सकता अतएव अज्ञानी चैतन्य स्वरूप को जानता हुवा भी संसार में ही भ्रमण करता रहता है इसलिये ग्रंथकार कहते हैं कि ऐसा अतिशयशाली चैतन्यरूपी तेज सदा आपकी रक्षा करे।।१२।।
देहवानपि च देहवर्जितश्चित्रमेतदखिलं चिदात्मन:।।१३।।
अर्थ —जो आत्मा कर्मों के बंधनकर सहित होकर भी कर्मबंधनकर रहित है तथा द्वेष और राग से मलिन होने पर भी जो निर्मल है और देहधारी होने पर भी जो देहकर रहित है इसलिये आचार्य कहते हैं कि आत्मा का स्वरूप आश्चर्यकारी है।
भावार्थ —इस श्लोक में विरोधाभास नामक अलंकार है इसलिये आचार्य विरोध को दिखाते हैं कि जो कर्मबंधन कर सहित है वह कर्मबंधनकर रहित कैसे हो सकता है ? और जो समल है वह निर्मल वैâसे हो सकता है ? और जो देहसहित है वह देहरहित कर्मबंधनकर रहित कैसे हो सकता है ? और जो समल है वह निर्मल कैसे हो सकता है ? और जो देहसहित है वह देहरहित कैसे हो सकता है ? अब आचार्य विरोध का परिहार करते हैं यद्यपि अशुद्धनिश्चय से आत्मा रागद्वेष से मलिन है तो भी शुद्धनिश्चय से वह निर्मल है और आत्मा व्यवहारनय से शरीर कर सहित है तो भी शुद्धनिश्चयनय से उसका कोई शरीर नहीं है।
सारार्थ— किसी अपेक्षा से आत्मा कर्मबंधनकर सहित है तथा किसी अपेक्षा से कर्मबंधन कर रहित है और किसी अपेक्षा से रागद्वेष से मलिन है तथा किसी अपेक्षा से निर्मल है और किसी अपेक्षा से आत्मा शरीर सहित है तथा किसी अपेक्षा से शरीर कर रहित है इस प्रकार आत्मा अनेक धर्मात्मक है एकधर्मात्मक है एक धर्मात्मक नहीं ऐसा विश्वास रखना चाहिये।
अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि अनेकान्तात्मक वस्तु में किसी प्रकार का विरोध नहीं आ सकता।
एकमेव गतमप्यनेकतां तत्त्वमीदृगपि नो विरुद्ध्यते।।१४।।
अर्थ —जो अनेकान्तात्मक तत्त्व नाशरहित होने पर भी नाशकर सहित है और शून्य होने पर भी संपूर्ण है (भराहुवा है) तथा एक होने पर भी अनेक है ऐसा होने पर भी उनमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है।
भावार्थ —समस्त पदार्थों की सिद्धि किसी न किसी अपेक्षा के द्वारा ही होती है यदि पदार्थों की सिद्धि में अपेक्षा न मानी जाय अर्थात् यदि उनकी सिद्धि एकान्तरीति से ही की जाय तो कदापि उनकी निर्दोष सिद्धि नहीं हो सकती इसलिये अनेकान्तात्मक तत्त्व में किसी प्रकार का दोष आकर उपस्थित नहीं होता क्योंकि अपेक्षा से ही अनेकान्तात्मक तत्त्व की स्थिति है जैसे— यदि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा की जावे तो तत्त्व नाश कर सहित है और यदि पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा की जावे तो तत्त्व शून्यता कर रहित भी है और शुद्धनिश्चय नय की अपेक्षा से एक भी है तथा व्यवहारनय की अपेक्षा से अनेक भी है इस रीति से अस्तित्व नास्तित्वादि अनेक धर्म तत्त्व में मौजूद है तथा वे सब अपेक्षा से माने गये हैं इसलिये उसमें किसी प्रकार का विरोध भी नही है ऐसा निश्चय से समझना चाहिये।।१४।।
आत्मीकतत्त्व के पाने वाले ही स्वस्वरूप के पाने वाले समझे जाते हैं इस बात को आचार्य दिखाते हैं।
स क्रमेण परमेकतां गत: स्वस्वरूपपदमाश्रयेद्रव ध्रुवम् ।।१५।।
अर्थ — मूर्छित हुवा मनुष्य जिस प्रकार सावधान होकर अपनी भूली हुई चीज को ढूढंता है पीछे शान्त होकर अपने स्वरूप में स्थित होता है उसी प्रकार जो मनुष्य अनादिकाल से भूले हुवे अपने स्वाभाविक चैतन्य को आश्रय कर क्रम से साम्यभाव को धारण करता है वह मनुष्य निश्चय से आत्मा स्वरूप को आश्रय करता है अर्थात् उसको आत्मस्वरूप की प्राप्ति होती है ।।१५।।
इत्युपाधिपरिहारपूर्णता सा यदा भवति तत्पदं तदा।।१६।।
अर्थ —जो—२ बात मन में होवे (अर्थात् जिस—२ बात की मन में इच्छा होवे) उसी—२ बात को सबसे पहिले छोड़ देवे इस प्रकार जिस समय में समस्त उपाधि का नाश हो जाता है उसी समय में आत्म स्वरूप की प्राप्ति हो जाती है।
भावार्थ —ज्ञान दर्शन की परिपूर्णता ही आत्मा का स्वरूप है और जिस समय में इस अखण्डज्ञान तथा दर्शन की प्राप्ति हो जाती है उसी को स्वरूप की प्राप्ति कहते हैं किन्तु जब तक कर्मजनित राग द्वेष अथवा इच्छा आदि उपाधियों का संबंध इस आत्मा के साथ रहता है तब तक आत्मस्वरूप की प्राप्ति नहीं होती इसलिये स्वस्वरूप की प्राप्ति के इच्छुक भव्यजीवों को चाहिये कि वे जिस समय चित्त में इच्छा आदिक उपाधि उत्पन्न होवे उसी समय उनका त्याग कर आत्मस्वरूप को प्राप्ति करें।।१६।।
तद्गतं परमनिस्तरङ्गतामग्निरुग्र इह जन्मकानने ।।१७।।
अर्थ —पांचों इन्द्रियों के तथा मन के और श्वासोच्छ्वास के संकुचित होने पर जो आत्मा का निर्मल तथा उत्कृष्ट स्वरूप उदित होकर शोभित होता है ऐसा वह अत्यंत निश्चल आत्मतत्त्व संसाररूपी वन के लिये भयंकर अग्नि के समान है।
भावार्थ —जिस प्रकार वन में लगी हुई अग्नि समस्तवन को भस्म कर देती है उसी प्रकार परमात्मतत्त्व भी समस्त संसार का नाश करने वाला है अर्थात् परमात्मतत्त्व के प्राप्त होने पर संसार का सर्वथा नाश हो जाता है।।१७।।
निर्विकल्प पदवी का आश्रयणकरने वाला ही संयमी मोक्ष पद को प्राप्त होता है इस बात को आचार्य दिखाते हैं।
निर्विकल्पपदवीमुपाश्रयन् संयमी हि लभते परं पदम्।।१८।।
अर्थ —मैं समस्त कर्मों कर रहित मुक्त हूं ऐसा भी संयमियों को नहीं मानना चाहिये तथा मैं समस्त कर्मोंकर सहित हूं ऐसा भी नहीं मानना चाहिये क्योंकि निर्विकल्प पदवी को आश्रय करने वाली संयमी मोक्ष पद को प्राप्त होता है।
भावार्थ —मैं कर्मकर रहित हूं यह भी विकल्प है तथा मैं कर्म कर सहित हूं यह भी विकल्प है और जिस संयमी के जब तक ऐसा विकल्प रहता है तब तक उसकी कदापि मुक्ति नहीं होती इसलिये जो संयमी मोक्षाभिलाषी हैं उनको निर्विकल्पक पदवी का ही आश्रय करना चाहिये।।१८।।
अब आचार्य द्वैत’ तथा अद्वैतभाव का निषेध वर्णन करते हैं।
एक इत्यपि मति: सती न यत्साप्सुपाधिरचिता तदङ्गभृत् ।।१९।।
अर्थ —हे जीव! कर्म तथा मैं दो हूं इस प्रकार का द्वैत भी जीवों को संसार का कारण है अर्थात् इस प्रकार के द्वैत से भी जीवों को नाना प्रकार के भवों में भ्रमण करना पड़ता है तथा मै एक हूं यह भी बुद्धि ठीक नहीं क्योंकि उपर्युक्त दोनों प्रकार की बुद्धि उपाधिजन्य हैं।
भावार्थ —मैं द्वैत हूं तथा एक हूं इस प्रकार का द्वैत भी जीवों को संसार का कारण है अर्थात् इस प्रकार के द्वैत से भी जीवों को नाना प्रकार के भवों में भ्रमण करना पड़ता है तथा मैं एक हूं यह भी बुद्धि ठीक नहीं क्योंकि उपर्युक्त दोनों प्रकार की बुद्धि उपाधिजन्य हैं।
भावार्थ —मैं द्वैत हूं तथा एक हूं इस प्रकार के दोनों भाव असत्य हैं क्योंकि ये संसार के उत्पन्न करने वाले हैं तथा कर्मजनित उपाधि से पैदा हुवे हैं इसलिये जो पुरूष मोक्षाभिलाषी है उनको इन दोनों भावों का त्याग कर निर्विकल्प पदवी का ही आश्रय करना चाहिये।।१९।।
अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि शुद्धभावना तो शुद्ध पद की कारण है और अशुद्ध भावना अशुद्धपद की कारण है।
सेतरेतरकृते सुवर्णतो लोहतश्च विकृति तदाश्रिते ।।२०।।
अर्थ —जिस प्रकार सुवर्ण पात्र की उत्पत्ति होती है तथा लोह से लोह पात्र की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार शुद्ध परमात्मा की भावना करने से शुद्ध पद मोक्ष पद की प्राप्ति होती है तथा अशुद्ध भावना से अशुद्धपद स्वर्ग नरकादि पद की प्राप्ति होती है।
भावार्थ —‘‘कारण सदृशानि कार्याणि भवन्ति’’ अर्थात् कारण के समान ही कार्य उत्पन्न होते हैं इस नीति के अनुसार जो भव्यजीव निष्कलंक शुद्ध बुद्ध परमात्मा का ध्यान करते हैं उनको परमपद मोक्ष की प्राप्ति होती है अर्थात् वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं और जो मनुष्य परमात्मा की भावना नहीं करते हैं उनको परमपद की प्राप्ति नहीं होती अर्थात् उनको संसार में नरकादि गतियों में भ्रमण करना पड़ता है।।२०।।
परमार्थ को जानने वाले योगी को किसी प्रकार के सुख दु:ख का अनुभव नहीं करना पड़ता इस बात को आचार्य दिखाते हैं।
तत्कृतेऽपि परमात्मवेदिनो योगिनो न सुखदु:खकल्पना ।।२१।।
अर्थ —समस्तकर्म मुझसे भिन्न हैं इस प्रकार निरंतर अपने दिव्य सम्यग्ज्ञानरूपी चक्षु से देखने वाले तथा परमात्मा को भली भांति जानने वाले योगी के कर्म से उत्पन्न सुख दु:ख के होने पर भी सुख दु:ख की कल्पना नहीं होती।
भावार्थ —अपने से कर्म को भिन्न समझने वाला परमार्थ को भली भांति जानने वाला योगीश्वर कर्म जनित सुखदु:ख के होने पर भी अपने को सुखी दु:खी नहीं मानता।।२१।।
योगिनो दृगवरोधकारक: सन्निधिर्न तमसां कदाचन ।।२२।।
अर्थ —सूर्य के समान योगियों के मन की गति यदि निरालंबमार्ग में ही होवे तो कभी भी उनके सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान की प्रभा को रोकने वाले अंधकार की निकटता न होवे।
भावार्थ —जिस प्रकार सूर्य निरावरण मार्ग में गमन करता है इसलिये उसका प्रकाश किसी के द्वारा रोका नहीं जाता उसी प्रकार जिस योगी का मन निरालम्ब मार्ग में गमन करता है अर्थात् जिस समय योगी निरालम्बध्यान को करता है उस समय उपयोगी के सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानरूपी तेज को दर्शनावरण ज्ञानावरण रूपी अंधकार रोक नहीं सकता इसलिये योगियों को सदा निरालम्ब ही ध्यान करना चाहिये।।२२।।
मीलितेऽपि सति खे विकारिता जायते न जलदैर्विकारिभि:।।२३।।
अर्थ —नाना प्रकार के विकारों कर सहित मेघों के साथ संबंध होने पर भी जिस प्रकार आकाश में किसी प्रकार का विकार पैदा नहीं होता क्योंकि वे विकार मेघों के हैं उसी प्रकार रोग वृद्धावस्था आदि नाना प्रकार के विकार शरीर के विकार ही हैं मेरे (आत्मा के) विकार नहीं हैं क्योंकि शरीर से मैं सदा जुदा हूं ।
भावार्थ —मूर्तीक पदार्थों में ही विकार होता है अमूर्तीक पदार्थों में नहीं आकाश अमूर्तीक है इसलिये अनेक प्रकार के विकार सहित मेघों के संबंध होने पर भी जिस प्रकार आकाश में विकार नहीं होता उसी प्रकार आत्मा का भी विकार नहीं हो सकता क्योंकि आत्मा अमूर्तीक है जो रोग वृद्धावस्था आदि विकार हैं वे शरीर के विकार हैं तथा शरीर आत्मा से सर्वथा भिन्न है।।२३।।
उच्छ्रितेन गृहमेव दह्यते वह्निना न गगनं तदाश्रितम् ।।२४।।
अर्थ —यदि किसी कारण से मकान में अग्नि लग जावे तो उस अग्नि से मकान ही जलता है किन्तु उसके भीतर रहा हुवा आकाश नहीं जलता उसी प्रकार शरीर में किसी कारण से व्याधि उत्पन्न हो जावे तो उस व्याधि से शरीर ही नष्ट होता है उसके भीतर रहे हुवे आत्मा का नाश नहीं होता।।
भावार्थ —जिस प्रकार मकान में उठी हुई अग्नि से मकान ही जलता है उसी प्रकार शरीर में उठी हुई व्याधि से शरीर ही नष्ट होता है किन्तु अग्नि से जिस प्रकार मकान के भीतर रहा हुवा आकाश नहीं जलता उसी प्रकार व्याधि से शरीर के भीतर रहा हुवा चैतन्यस्वरूप आत्मा भी नष्ट नहीं होता।।२४।।
नान्यदल्पमपि तत्त्वमीदृशं मोक्षहेतुरीति योगनिश्चय :।।२५।।
अर्थ —समस्त प्रकार की रागद्वेष आदि उपाधियों से रहित तथा सम्यग्ज्ञानस्वरूप जो कोई वस्तु है वही हमारी है किन्तु इससे भिन्न थोड़ी सी वस्तु हमारी नहीं है इस प्रकार जो योग का निश्चय है वही मोक्ष का कारण है किन्तु इससे भिन्न योग का निश्चय मोक्ष का कारण नहीं ।।२५।।
अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि योग से ही तो आत्मा बंधन को प्राप्त होता है और योग से ही मोक्ष को प्राप्त होता है।
योगवर्त्म विषमं गुरोर्गिरा बोध्यमेतदखिलं मुमुक्षुणा।।२६।।
अर्थ —ध्यान से ही तो मनुष्य बंधन को प्राप्त होता है तथा ध्यान से ही मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होता है इस प्रकार यह ध्यान का मार्ग अत्यंत कठिन है किन्तु जो भव्यजीव मोक्ष के अभिलाषी हैं उनको यह समस्त ध्यान का मार्ग गुरू के उपदेश से समझना चाहिये।
भावार्थ —ध्यान अनेक प्रकार का होता है उनमें जो मनुष्य जैसा ध्यान करता है उसको उसी प्रकार के फल की प्राप्ति होती है इसलिये मोक्षाभिलाषियों को चाहिये कि वे मोक्ष के कारणभूत ध्यान को ही गुरू के उपदेश से समझें और संसार का जो कारण ध्यान है उसकी ओर दृष्टि न देवें।।२६।।
शुद्धज्ञानस्वरूप वस्तु ही रमणीकस्थान है इस बात को आचार्य दिखाते हैं।
स प्रमाद इह मोहज: क्वचिस्कल्प्यते यदपरापि रम्यता।।२७।।
अर्थ —जो वस्तु शुद्धबोधस्वरूप है अर्थात् निर्मलसम्यग्ज्ञानस्वरूप है वही हमारा रमणीय स्थान है किन्तु जो मनुष्य निर्मल सम्यग्ज्ञान से अतिरिक्त भी रमणीयता है इस बात को कहते हैं वह वास्तविक रमणीय नहीं किन्तु वह मोहनीयकर्म से उत्पन्न हुवा प्रमाद ही है।
भावार्थ —निर्मलसम्यग्ज्ञान स्वरूप ही रमणीय है किन्तु इससे भिन्न कोई भी पदार्थ रमणीय नहीं है यदि कोई मनुष्य इससे भिन्न पदार्थ को भी रमणीय माने तो उसका प्रमाद ही समझना चाहिये।।२७।।
यन्न यात्यपरतीर्त्थकोटिभि: क्षालयत्यपि मलं तदन्तरम् ।।२८।।
अर्थ —आचार्य उपदेश देते हैं कि हे भव्य पंडितो! यदि तुम अपने पापों का नाश करना चाहते हो तो अत्यंत पवित्र तथा आश्चर्य के करने वाले उत्तम इस आत्मज्ञानस्वरूपी तीर्थ में ही स्नान करो क्योंकि जो अंतरंग का मल अन्य करोड़ों तीर्थों में स्नान करने पर भी नष्ट नहीं होता है वह अंतरंग का मल इस आत्मज्ञान स्वरूप तीर्थ में एक समय स्नान करने पर ही नष्ट हो जाता है।
भावार्थ —पाप से भयभीत होकर करोड़ों मनुष्य काशी प्रयाग आदि स्थानों पर गंगा आदि नदियों में स्नान करते हैं तथा अपने को मल रहित शुद्ध मानते हैं परंतु गंगा आदि नदियों में स्नान करने से बाह्य मल का ही नाश होता है किंतु रागद्वेष आदि अंतरंग मल का नाश नहीं होता और वास्तविकरीति से अंतरंग मल का नाश ही वास्तविक सुख का मूल है इसलिये आचार्य वर उपदेश देते हैं कि हे भव्यजीवों यदि तुम अंतरंगमल का नाश करना चाहते हो तो तुमको इस परमपवित्र आत्मारूपी तीर्थ में ही स्नान करना चाहिये क्योंकि जो अंतरंगमल दूसरे—२ करोड़ों तीर्थों में स्नान करने पर भी नहीं होता वह अंतरंगमल आत्मरूपी पवित्रतीर्थ में एक बार ही स्नान करने से निश्चय पलभर में नष्ट हो जाता है।।२८।।
दु:खहेतुरमुतस्तु दुर्गति: विंâ न विप्लवमुपैति योगिन:।।२९।।
अर्थ —आचार्य कहते हैं कि जो पुरूष बड़े उत्साह के साथ चैतन्य रूपी समुद्र के तीर की भलीभांति सेवा करते हैं क्या उनको सम्यक्दर्शन आदि रत्नों की प्राप्ति नहीं होती है अवश्य ही होती है तथा इस पाये हुवे रत्न समूह से चैतन्यरूपी समुद्र की सेवा करने वाले मुनियों की क्या नाना प्रकार के दु:खों को देने वाली नरक आदि खोटी गतियों का नाश नहीं होता ? अवश्य ही होता है।
भावार्थ —जिस प्रकार समुद्र की पार पर रहने वाले मनुष्यों को नाना प्रकार के रत्नों की प्राप्ति होती है तथा उन रत्नों की सहायता से वे धनिक हो जाते हैं और उनको दरिद्रता से पैदा हुवा दु:ख कुछ भी नहीं सता सकता उसी प्रकार जो मुनि सदा अपनी आत्मा का चिंतन करने वाले हैं उनको सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र रूपी रत्नों की प्राप्ति होती है तथा उन रत्नों की प्राप्ति होने पर उनको किसी प्रकार की नरक आदि गतियों में नहीं जाना पड़ता इसलिये दु:ख से सदा भय करने वाले मनुष्यों को आत्मा का ही चिंतवन करना चाहिये।।२९।।
योगदृष्टिविषयीभवन्नसौ निश्चयेन पुनरेक एव हि।।३०।।
अर्थ —परमात्मा में जो निश्चय तथा ज्ञान और स्थिति हैं उन्हीं को सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र कहते हैं और केवली भगवान की दृष्टि में ये तीनों निश्चय से आत्मस्वरूप ही हैं अर्थात् आत्मा से भिन्न सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र कोई पदार्थ नहीं।
भावार्थ —परमात्मा है इस प्रकार का जो निश्चय है सो तो सम्यग्दर्शन है और परमात्मा को भलीभांति जानना सम्यग्ज्ञान है तथा परमात्मा में स्थिरता रखना सम्यक्चारित्र है और यदि निश्चयनय से देखा जावे तो ये आत्मस्वरूप ही हैं आत्मा से भिन्न नहीं है तथा केवली भगवान अपने केवलज्ञान तथा केवलदर्शन से इनको आत्म स्वरूप ही जानते हैं तथा देखते हैं।।३०।।
बाह्यवेध्यविषये कृतश्रमाश्चिद्रणे प्रहतकर्मशत्रव:।।३१।।
भावार्थ —जिस प्रकार संग्राम में प्रत्यंचासहित धनुष से छोड़े हुए बाणों से समस्त बैरी नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार चैतन्यरूपी संग्राम में शास्त्र रूपी प्रत्यंचासहित बुद्धिरूपी धनुष से प्रेरित तथा बाह्य पदार्थों के वेधन करने में तत्पर जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र रूपी बाण हैं वे समस्तकर्मरूपी बैरियों को नष्ट करते हैं।।३१।।
अन्यथा भवति कर्मगौरवात् सा प्रमादपदवीमुपेयुष:।।३२।।
अर्थ —निश्चय के मुनियों की जो प्रवृत्ति है वह मन वचन काय की प्रवृत्तिकर रहित है किन्तु वह मुनि यदि प्रमाद पदवी को प्राप्त हो जावे अर्थात् प्रमादी बन जावे तो कर्म की गुरूता से उसकी प्रवृत्ति विपरीत ही अर्थात् मन वचन कायकर सहित ही हो जाती है।।
भावार्थ —निश्चयनय से मुनियों की प्रवृत्ति मन वचन काय की प्रवृत्तिकर रहित है किन्तु जिस समय वे प्रमादी बन जाते हैं उस समय प्रमाद के द्वारा उनकी आत्मा में कर्मों का आगमन होता है तथा पीछे कर्मों का बंध होता है उस समय कर्म के संबंध से उनकी प्रवृत्ति मन वचन कायकर सहित ही होती है।।३२।।
योागिनोऽणुसदृशं विभाव्यते यत्र मग्नमखिलं चराचरम्।।३३।।
अर्थ —जिन योगियों के निर्मल ज्ञान में चर अचर समस्त जगत परमाणु के समान मालूम पड़ता है ऐसा वह योगियों का ज्ञान स्वरूपी समुद्र श्रेष्ठ समाधि रूप चन्द्रमा के उदय से समुद्र वृद्धि को प्राप्त होता है । जिस प्रकार चन्द्रमा के उदय से वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार समाधि से निर्मल ज्ञान की वृद्धि होती जाती है तथा उस ज्ञान में समस्त जगत बड़ा भी परमाणु के समान छोटा मालूम पड़ता है अर्थात् अनंत भी जगत उस ज्ञान में परमाणु के समान ही है।।३३।।
भेदबोधदहेन हृदिस्थिते योगिनोझटिति भस्मसाद् भवेत्।।३४।।
अर्थ —पवित्र समाधिरूपीपवन से उदय को प्राप्त , ऐसे भेदज्ञानरूपी अग्नि के , योगी के हृदय में स्थित होने पर प्रबल भी कर्मरूपी सूखेतृणों का समूह शीघ्र ही भस्मीभूत हो जाता है।
भावार्थ —जिस प्रकार सूखे तृणों में पड़ी हुई थोड़ी सी भी चिनगारी (अग्नि का फुलिंगा) जिस समय पवन की सहायता से बढ़ जाती है उस समय बहुत भी तृणों के समूह को पलभर में भस्म कर देती है उसी प्रकार जिस समय मुनियों के मन में (मेरी आत्मा भिन्न है और ये स्त्री पुत्र मित्र आदि पदार्थ भिन्न है ऐसा) स्वपर का भेद विज्ञान समाधिरूपी पवन से उदय को प्राप्त हो जाता है उस समय जितने कर्मो का आत्मा के साथ संबंध मौजूद है वे समस्त कर्म पलभर में नष्ट हो जाते हैं इसलिये जिन मनुष्यों को अपनी आत्मा से कर्मों के जुदा करने की अभिलाषा है उनको चाहिये कि वे निर्मलसमाधि से भेदज्ञान को उदित करें जिससे उनके समस्त कर्म आत्मा से शीघ्र जुदे हो जावे।।३४।।
अब आचार्य इस बात को बताते हैं कि समाधि रूपी कल्पवृक्ष मुनियों को वांछितफल का देने वाला है।
योगकल्पतरुरेषु निश्चितं वाञ्छितं फलति मोक्षसत्फलम्।।३५।।
अर्थ —यदि यह समाधिरूपी कल्पवृक्ष मनरूपीमतवाले हाथी से नष्ट न किया जाय और दुष्टज्ञान (मिथ्याज्ञान) रूपी वनाग्नि से भस्म न किया जाय तो वह अवश्य की वांछित मोक्ष रूपी श्रेष्ठफल को देता है।
भावार्थ —जिस प्रकार वन में खड़े हुए कल्पवृक्ष को यदि मत्त हाथी नष्ट न करें अथवा बन की अग्नि भस्म न करें तो वह अवश्य ही उत्तम तथा मिष्टफल को देता है उसी प्रकार यह समाधि भी यदि खोटे विषयों में प्रवृत्त मन से नष्ट न होवे और मिथ्याज्ञान पूर्वक न कीजिये तो अवश्य ही मोक्ष के देने वाली होती है इसलिये जो मुनि मोक्ष रूपी उत्तम फल के इच्छुक है उनको चाहिये कि वे मन को अपने वश में रखें और सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही समाधि का आचरण करें अन्यथा उनको उत्तम फल की प्राप्ति नहीं होगी।।३५।।
जब तक मन में परमात्मा का ज्ञान नहीं होता है तभी तक बुद्धि शास्त्रों में भटकती फिरती है इस बात को आचार्य समझाते हैं ।
यावदत्र परमात्मसंविदा भिद्यते न हृदयं मनीषिण:।।३६।।
अर्थ —आचार्य कहते हैं कि जब तक चित्त परमात्मा के ज्ञान से भेद को प्राप्त नहीं होता है तभी तक बुद्धिमान पुरुष की बुद्धिरूपी नदी सदा शास्त्रों में आगे—२ दौड़ती चली जाती है।
भावार्थ —बुद्धिमान पुरुष शास्त्र का स्वाध्याय इसीलिये करते हैं कि किसी रीति से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त होवे किन्तु जिस समय चित्त परमात्मा के ज्ञान से अभिन्न हो जाता है अर्थात् जिस समय मन में परमात्मा का ज्ञान हो जाता है उस समय बुद्धिमान की बुद्धि शास्त्र की ओर नहीं जाती है।।३६।।
संसार में चैतन्यरूपी दीपक ही देदीप्यमान है इस बात को आचार्य दिखाते हैं।
विंâ न मोहतिमिरं विखण्डयन् भासते जगति चित्प्रदीपक: ।।३७।।
अर्थ —जिस चैतन्यरूपी दीपक का पवन ने स्पर्श नहीं किया है और जिसमें सम्यग्ज्ञानरूपी अग्नि मौजूद है तथा जिसकी दशा निर्मल और देदीप्यमान है ऐसा चैतन्यरूपी दीपक मोहरूपी अंधकार को नाश करता हुआ क्या जगत में प्रकाशमान नहीं है? अवश्य ही है।
भावार्थ —जो दीपक पवन द्वारा स्पर्श नहीं है अर्थात् जिसका पवन ने स्पर्श नहीं किया है और जिसमें अग्नि मौजूद है तथा जिसमें बत्ती उत्तम है ऐसा दीपक जिस प्रकार अंधकार का नाश करता है और प्रकाशमान रहता है उसी प्रकार जिस चैतन्य के साथ क्रोधादि कषायों का संबंध नहीं है और जिसमें सम्यग्ज्ञान मौजूद है तथा जिसकी स्थिति निर्मल और देदीप्यमान है ऐसा चैतन्य अवश्य ही मोह को नाश कर संसार में प्रकाशमान रहता है।।३७।।
जो बुद्धि आत्मस्वरूप से भिन्न बाह्यपदार्थों में भ्रमण करती है वह बुद्धि उत्तम बुद्धि नहीं इस बात को आचार्य समझाते हैं।
चित्स्वरूपकुलसद्मनिर्गता सा सती न सदृशी कुयोषिता।।३८।।
अर्थ —जो बुद्धि अपने चैतन्यरूपी जो कुलगृह है उससे निकली हुई है अतएव जो बाह्य शास्त्ररूपी वन में विहार करने वाली है और अनेक प्रकार के विकल्पों को धारण करने वाली है ऐसी वह बुद्धि उत्तम बुद्धि नहीं किन्तु कुलटा स्त्री के समान निकृष्ट है।
भावार्थ —जिस प्रकार अपने घर से निकल कर बाह्यवनों में भ्रमण करने वाली और अनेक प्रकार के संकल्प विकल्पों को धारण करने वाली स्त्री कुलटा समझी जाती है और निकृष्ट समझी जाती है उसी प्रकार जो बुद्धि अपने चैतन्यरूपी मन्दिर से निकलकर बाह्यशास्त्रों में विहार करने वाली हैं और अनेक विकल्पों को धारण करने वाली है अर्थात् स्थिर नहीं है ऐसी बुद्धि उत्तम बुद्धि नहीं समझी जाती इसलिये अपनी आत्मा के हित के अभिलाषियों को चाहिये कि वे अपने आत्मा के स्वरूप से भिन्न पदार्थों में अपनी बुद्धि को भ्रमण न करने देवें और स्थिर रखें उसी समय बुद्धि उत्तम बुद्धि हो सकती है।।३८।।
हेय और उपादेय दोनों प्रकार के पदार्थों में जो भव्यजीव हेय को छोड़कर उपादेय को ग्रहण करता है वही मोक्ष को जाता है इस बात को आचार्य दिखलाते हैं।।
तस्य बुद्धिरुपदेशतो गुरोराश्रयेत्स्वपदमेव निश्चलम् ।।३९।।
अर्थ —जो भव्यजीव हेय तथा उपादेय पदार्थों का रातदिन चिंतवन करता है और उन दोनों में त्यागने योग्य पदार्थों को त्याग करता है उस भव्यजीव की बुद्धि उत्तमगुरू के उपदेश से चैतन्यरूपी जो अविनाशी स्थिरपद है उसको प्राप्त होती है इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं।
भावार्थ —संसार में भव्यजीवों को त्यागने योग्य पदार्थ तो स्त्री पुत्र धन धान्य आदिक पदार्थ हैं और ग्रहण करने योग्य चैतन्य स्वरूप है इसप्रकार का विचार कर जो भव्य स्त्री पुत्र धान्य आदिक त्यागने योग्य पदार्थों को त्याग करता है उस मनुष्य की बुद्धि अवश्य ही निर्लोभी उत्तम गुरुओं के उपदेश से नहीं चलायमान तथा अविनाशी, चैतन्यस्वरूप को प्राप्त होती है इसलिये निश्चलचैतन्यस्वरूप के अभिलाषी भव्यजीवों को अवश्य ही हेय पदार्थों का त्याग कर देना चाहिये।।३९।।
जो मनुष्य मोहनिद्रा में मग्न हैं उस मनुष्य को बाह्य पदार्थ भी स्वस्वरूप ही मालूम पड़ते हैं इस बात को आचार्यवर दिखाते हैं।
जाग्रतोच्चवचसा गुरोर्गतं संगतं सकलमेव दृश्यते।।४०।।
अर्थ —गाढ़ मोहरूपीनिद्राने जिसके ऊपर अपना प्रभाव डाल रखा है अतएव जो मोहरूपी नींद में मग्न है वह मनुष्य अपने से भिन्न भी स्त्री पुत्र आदि को अपना मानता है किन्तु जो मनुष्य जग रहा है उस मनुष्य को तो समस्त जगत उत्तम गुरू के उपदेश से संयुक्तमात्र क्षणभंगुर ही मालूम पड़ता है।
भावार्थ —जब तक जीव मोहनिद्रा में सोते रहते हैं तब तक उनको अपना पराया कुछ भी भेद नहीं मालूम पड़ता इसीलिये वे जीव अपने से सर्वथा भिन्न भी स्त्री पुत्र धन धान्य आदि पदार्थों को अपने स्वरूप ही समझते हैं किन्तु जिस समय वे मोहनिद्रा में मग्न नहीं रहते उस समय उनकी दृष्टि के सामने गुरू के उपदेश से समस्त जगत् क्षणभंगुर मालूम पड़ता है अतएव वे अपने से भिन्न किसी पदार्थ में रत नहीं होते ।।४०।।
निर्मल समाधि की सिद्धि के लिये बुद्धिमान पुरूषों को सर्वपदार्थो में समता ही धारण करनी चाहिये इस बात को आचार्य दिखाते हैं।
साम्यमेव सकलैरुपाधिभि: कर्मजालजनितैर्विवर्जितम् ।।४१।।
अर्थ — आचार्यवर कहते हैं कि बहुत कहां तक कहा जावे जो पुरूष बुद्धिमान हैं अर्थात् जिन पुरूषों को इस बात का भलीभांति ज्ञान है कि यह पदार्थ त्यागने योग्य है और यह पदार्थ ग्रहण करने योग्य है उनको चाहिये वे निर्मल योग की सिद्धि के लिये नाना प्रकार के कर्मों से पैदा हुई जो नाना प्रकार की उपाधियां उनसे सर्वथा रहित साम्यभाव का आश्रय करें।
भावार्थ —जब तक पदार्थों में समता नहीं होती तब तक कदापि चित्त की एकाग्रता के न होने से निर्मल योग की प्राप्ति भी नहीं हो सकती इस लिये आचार्यवर उपदेश देते हैं कि अधिक कहने से क्या ? जिन मनुष्यों को निर्मल योग के प्राप्त करने की अभिलाषा है उनको चाहिये कि वे समस्त प्रकार के कर्मों से उत्पन्न हुई उपाधियों से सर्वथा रहित साम्यभाव का ही अवलम्बन करें जहां तहां व्यर्थ भटकते न फिरें।।४१।।
आचार्यवर परमात्मा के नाम मात्र के लेने से ही क्या लाभ होता है इस बात को बतलाते हैं।
बोधवृत्तरुचयस्तु तद्गता: कुर्वते हि जगतां पतिं नरम्।।४२।।
अर्थ —परमात्मा के नाम मात्र के कथन से ही अनेक जन्मों में संचय किया हुवा पापों का समूह पलभर में नष्ट हो जाता है और उस आत्मा से विद्यमान जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र रूपी रत्नत्रय है वह तो मनुष्य को जगत का पति ही बना देता है अर्थात् परमात्मा को प्राप्त करा देता है।
भावार्थ —उस आत्मा की सिद्धि के लिये प्रयत्न करना तो दूर रहा किन्तु जो भव्यजीव उस परमात्मा का केवल नाम भी लेता है उस मनुष्य के जन्म—जन्म के पापों के समूह पलभर में नष्ट हो जाते हैं और उस आत्मा में विद्यमान जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र हैं वे तो इसको परमात्माही बना देते हैं इसलिये जो मनुष्य जन्म जन्म के पापों के नाश करने की इच्छा करने वाले हैं तथा तीनों लोक के पति होना चाहते हैं उनको चाहिये कि वे अवश्य परमात्मा का नाम लेवें और सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र की ओर लक्ष्य देवे।।४२।।
जो मनुष्य चैतन्यस्वरूप आत्मा में लीन है वह समस्त योगियों में उत्तम हैं इस बात को आचार्य कहते हैं।
जीवराशिरखिलश्चिदात्मको दर्शनीय इतिचात्मसन्निभ:।।४३।।
अर्थ —जिस योगी का चित्त चैतन्य रूप जो मोक्ष पद उस में लगा हुवा है वही योगी समस्त योगियों में उत्तम योगी है अर्थात् योगियों का ईश्वर है और वही योगीश्वर समस्त चैतन्य स्वरूप प्राणियों को अपने समान देखता है।
भावार्थ —यों तो वेषधारी बहुत से योगी संसार में देखने में आते हैं किन्तु वास्तविक योगी (योगियों का ईश्वर) वही योगी है जिसका चित्त सांसारिक सुखों से सर्वथा विरक्त है और चैतन्यस्वरूप उत्तमपद मोक्ष पद में लगा हुवा है तथा वही मनुष्य समस्त प्राणियों को अपने समान देखता है अन्य योगी नहीं।।४३।।
अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि जितने भर संसार में जीव मौजूद है उन सबको अपने समान ही देखना चाहिये तभी कार्यसिद्धि होती है।
आसितव्यमनिशं प्रयत्नत: स्वं परं सदृशमेव पश्यता।।४४।।
अर्थ —समस्त प्रकार के कार्यों की सिद्धि अंतरंग तथा बहिरंग योग से होती है इसलिये जो योगी आपको तथा परको समान देखने वाला है उसको बड़े भारी प्रयत्न से रहना चाहिये।
भावार्थ —यह लोक एकेन्द्रीभाव से पञ्चेन्द्री जीव पर्यंत सब जगह घी के घ़ड़े के समान भरा हुवा है उन सब जीवों को जो मनुष्य अपने समान मानता है उसी को समस्त कार्यों की सिद्धि होती है किन्तु जो मनुष्य अपने से छोटे जीवों को तुच्छ समझता है इसलिये उनके मारने में भी नहीं डरता है उस मनुष्य को कदापि किसी उत्तम कार्य की सिद्धि नहीं होती इसलिये उत्तम कार्यों की सिद्धि के अभिलाषी भव्यजीवों को, आपको और परको समान ही देखना—मानना चाहिये।।४४।।
योगियों का हृदय संसार के चरित्रों को देखकर कदापि विकारभाव को नहीं प्राप्त होता इस बात को आचार्य दिखाते हैं।
पश्यतोऽस्य विकृतिर्जडात्मन: क्षोभमेति हृदयं न योगिन:।।४५।।
अर्थ —अपने आप पैदा किये हुवे जो नाना प्रकार के कर्म उनसे यह लोक अनेक भावों कर सहित है इसलिये इस जड़ स्वरूप संसार को देखते हुवे भी योगी का मन कदापि क्षोभ को प्राप्त नहीं होता।
भावार्थ —जिस योगी को भलीभांति आत्मा का ज्ञान हो गया है और जिसकी इच्छा मोक्षस्थान में निवास करने की है उस योगी के मन में इसलोक के देखने से अंशमात्र भी क्षोभ नहीं होता क्योंकि अपने द्वारा उपार्जन किये कर्मोे से यह लोक नाना परिणाममय होता है यह इस लोक का स्वभावही है इस बात को वह योगी भलीभांति समझता है।।४५।।
अब आचार्य लोक के उद्धार का उपाय बताते हैं।
शास्त्रमेतदधिगम्य साम्प्रतं सुप्रबोध इह जायतामिति ।।४६।।
अर्थ —जिसका अंत नहीं है ऐसी जो गाढ़ मोहरूपीनिद्रा उससे यह लोक चिरकाल से सोया हुआ है अब शास्त्र को जानकर जाग्रतदशा को प्राप्त हो।
भावार्थ —अनादिकाल वीत गया यह लोक मोह रूपी गाढ़ निद्रा में सोया हुवा है इसलिये इसको इस बात का भी ज्ञान नहीं कि कौनसी वस्तु तो मुझे ग्रहण करने योग्य है और कौन सी वस्तु मुझे छोड़ने योग्य है इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि अब हुवा सो तो हुआ किन्तु आगे के लिये शास्त्र के अभिप्राय को भली भांति जानकर तो जाग्रत अवस्था को प्राप्त हो जिससे तुमको उत्तम सुख मिले नहीं तो अनादिकाल तक तुमको संसार में ही रूलना पड़ेगा।।४६।।
ईषदुद्गतवच:करै: परै: पद्मनन्दिवदनेन्दुना कृता।।४७।।
अर्थ —पद्मनन्दिमुनि का जो मुख वही हुआ चंद्रमा उससे कुछ उदय को प्राप्त ऐसी जो वचन रूपी उत्कृष्ट किरण उनसे की गई और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के गोचर ऐसी यह रम्यता चैतन्यत्वरूपी आकाश में चिरकालतक जयवंत प्रवर्त हो।
अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि यदि मोहबैरी विघ्न करने वाला संसार में न होता तो मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत सुलभ हो जाती।
मोक्षो हस्तगतोऽस्य निर्मलमतेरे तावतैव ध्रुवं प्रत्यूहं कुरुते स्वभावविषमो मोहो न वैरी यदि।।४८।।
अर्थ —जिसने बाह्य तथा अभ्यंतर के भेद से समस्त परिग्रहों का नाश कर दिया है और जिसके शान्ति ही धन है तथा मनोगुप्ति वचनगुप्ति इन तीन प्रकार की गुप्तियों से जो शोभित है और जिसको शुद्धात्मा की प्राप्ति हो गई है और जो निराश है अर्थात् जिसकी किसी भी पदार्थ में अंशमात्र भी इच्छा नहीं रही है ऐसा योगी होता है इसीलिये निर्मल है बुद्धि जिसकी ऐसे उस योगी के यदि स्वभाव से ही कुटिल मोहरूपी वैरी उस मोक्ष की प्राप्ति में विघ्न न करता तो परिग्रह आदि के रहितपने आदि कारणों से ही मोक्ष निश्चय से हस्तगम हो जाती अर्थात् उसकी प्राप्ति बहुत शीघ्र हो जाती है।
भावार्थ —मोक्ष की प्राप्ति में अन्यान्य सामग्री के होते सन्ते भी यदि स्वभाव से ही कुटिल ऐसा मोह विघ्न करने वाला होवे तो कदापि मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती इसलिये जो मनुष्य मोक्ष के अभिलाषी हैं उनको सबसे पहिले मोहरूपी प्रवल वैरी को जीतलेना चाहिये क्योंकि यही मोक्ष की प्राप्ति में विघ्न का करने वाला है और जब तक यह मौजूद रहता है तब तक मोक्ष की प्राप्ति में दूसरे २ कारण व्यर्थ ही है।।४८।।
उक्तं यत्परमेश्वरेण गुरुणा निश्शेषवाञ्छाभयभ्रान्तिक्लेशहरं हृदि स्फुरति चेच्चित्तत्त्वमत्यद्भुतम् ।।४९।।
अर्थ —जो चैतन्यतत्त्व समस्त प्रकार के अभिलाषा भय भ्रम तथा दु:खों का दूर करने वाला है और अत्यंत आश्चर्य का करने वाला है ऐसा चैतन्यरूपी तत्व परमईश्वर श्री गुरू द्वारा कहा गया यदि मेरे हृदय में स्फुरायमान है मौजूद है तो तीनों लोक में न तो कोई ऐसा देव है जिससे मुझे भय होवे और न कोई ऐसा पुरूष तथा सर्प ही है जिससे मैं डरूं और कातर होकर आपत्ति में किसी के सहारे जाऊं ।
अर्थ —जब तक मनुष्य को चैतन्य स्वरूप का भली भांति ज्ञान नहीं होता तथा जब तक किसी पदार्थ की अभिलाषा रहती है और भय तथा भ्रम और दु:ख होते हैं तब मनुष्य एक दम कातर होकर उस इच्छा की पूर्ति के लिये तथा भय भ्रम दु:खों के दूर करने के लिये जहां तहां देवी देव आदि को भी सेवा के लिये भटकता फिरता है और उससे कुछ फल भी नहीं निकलता किन्तु मेरे हृदय में तो श्री गुरूमहाराज के उपदेश से वह चैतन्य तत्त्व स्फुरायमान है जो चैतन्यस्वरूप तत्त्व समस्त प्रकार की इच्छाओं का पूरण करने वाला है और जिसकी कृपा से भय भ्रम दु:ख मेरे पास तक भी नहीं फटकने पाते फिर मुझे क्या आवश्यकता है जो मैं जहां तहां भटकूं और इच्छा की पूर्ति के लिये तथा भय भ्रम दु:ख आदि के दूर करने के लिये किसी देवी की सेवा करूं ऐसा ‘‘ जिस मनुष्य को चैतन्य स्वरूप का ज्ञान हो गया है वह ’’ सदा विचार करता रहता है।।४९।।
अब आचार्य वर श्रेष्ठज्ञान की महिमा की गाते हुवे सद्वोधचन्द्रोदयनामक अधिकार को समाप्त करते हैं।
सद्विद्याश्रितभव्यकैरवकुले कुर्वन् विकारश्रियं योगीन्द्रोदयभूधरे विजयते सद्वोधचन्द्रोदय: ।।५०।।
अर्थ —वह श्रेष्ठज्ञानीरूपी चंद्रमा अथवा ‘‘ सद्धोधचन्द्रोदयनामक अधिकार ’’ इस संसार में योगियों के जो इन्द्र अर्थात् बड़े—२ योगी वे ही हुवे उदयाचल उनमें सदा जयवंत है जो सद्वोधचन्द्रोदय, तत्त्वज्ञानरूपी जो अमृतसमुद्र उसको कल्लोलों से दूर तक उछालने वाला है और श्रेष्ठज्ञान का आधारभूत जो भव्यजीव रूपी ‘‘कौरवकुल’’ अर्थात् रात्रिविकासी कमलों का समूह उसका विकास करने वाला है।
भावार्थ —जिस प्रकार उदयाचल में चंद्रमा का उदय होता है उस समय समुद्र अपनी लहरों को दूर तक उछालता हुवा बढ़ता चला जाता है और सूर्यविकासी कमल संकुचित हो जाते हैं तथा रात्रि विकासी कमल विकसित हो जाते हैं उसी प्रकार जिस समय योगीश्वरों की आत्मा में श्रेष्ठज्ञान का उदय होता है अर्थात् जिस समय उनकी आत्मा सम्यग्ज्ञान को धारण करती है उस समय निरंतर उन योगियों का तत्त्वज्ञान बढ़ता ही चला जाता है और चित्त में जो कुछ किसी वस्तु की तृष्णा रहती है वह सब नष्ट हो जाती है और भव्य जीवों के मन को अत्यंत प्रसन्नता हो जाती है अर्थात् उन श्रेष्ठज्ञान के धारी योगीश्वरों से वास्तविक सुख के मार्ग के सुनने से भव्यजीवों के चित्त को बड़ा भारी संतोष होता है ऐसा वह सम्यग्ज्ञान रूपी चन्द्रमा का उदय चिरकाल तक इस संसार में जयवंत रहता है।।५०।।
इस प्रकार श्री पद्मनन्दि आचार्य द्वारा रचित इस पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका में सद्वोधचन्द्रोदयनामक अधिकार समाप्त हुआ।