14.श्रीमज्जिनेंन्द्रस्तोत्र
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श्री मज्जिनवरस्तोत्र
चित्तं गत्तं च लहू अमिएणव सिंचियं जायं ।।१।।
दृष्टे त्वयि जिनवर सफलीभूतानि मम नयनानि ।
अर्थ —हे जिनेश ! हे प्रभो ! आपके देखने पर मेरे नेत्र सफल होते हैं तथा मेरा मन और मेरा शरीर ऐसा मालूम होता है कि मानों अमृत ही शीघ्र सींचा गया हो ।
भावार्थ —उत्तम पदार्थों के देखने से ही नेत्र सफल होते हैं हे भगवन् ! आप उत्तम पदार्थ हैं इसलिये आपके देखने से मेरे नेत्र सफल होते हैं तथा मन में और मेरे शरीर में इतना आनंद होता है मानों ये दोनों अमृत से ही सींचे गये हों ।।१।।
तह णठ्ठं जह दिठ्ठं जहठ्ठियं तं मए तच्च ।।२।।
दृष्टे त्वयि जिनवर दृष्टिहरनिखिलमोहतिमिरेण ।
अर्थ —हे जिनेन्द्र ! आपके देखने पर, जो सर्वथा दृष्टि को रोकने वाला था ऐसा मोहरूपी अंधकार इस रीति से नष्ट हो गया कि मैंने जैसा वस्तु का स्वरूप था वैसा देख लिया।
भावार्थ —जिस प्रकार अंधकार में वस्तु का वास्तविक स्वरूप थोड़ा भी नहीं मालूम पड़ता क्योंकि अंधकार दृष्टि का प्रतिरोधक (रोकने वाला) है उसी प्रकार जब तक मोह का प्रभाव इस आत्मा के ऊपर पड़ा रहता है तब तक वस्तु का अंशमात्र भी वास्तविक स्वरूप नहीं मालूम पड़ता किंतुहे प्रभो ! जिस समय आपके दर्शन हो जाते हैं उस समय बलवान भी मोहरूपी अंधकार पलभर में नष्ट हो जाता है और ऐसा सर्वथा नष्ट हो जाता है कि वस्तु का वास्तविक स्वरूप दीखने लग जाता है।।२।।
मज्झ तहा जह मग्गे मोक्खंपिव पत्तमप्पाणं ।।३।।
दृष्टे त्वयि जिनवर परमानंदेन पूरितं हृदयं ।
अर्थ —हे जिनेन्द्र ! हे प्रभो ! आपके देखने से परमानन्द से भरे हुवे मैं अपने मन को ऐसा मानता हूं मानो मैं ही मोक्ष को साक्षात् प्राप्त हो गया हूँ ।
भावार्थ —जिस समय मेरा आत्मा मोक्ष को प्राप्त हो जाय तथा जैसा उसको वहां पर आनंद मिले उसी प्रकार हे प्रभो! मुझे आपके देखने से आनंद मालूम पड़ता है अर्थात् आपके दर्शन से पैदा हुवा सुख तथा मोक्ष का सुख ये दोनों सुख बराबर हैं किंतुइन में किसी प्रकार का भेद नहीं ।।३।।
आपके दर्शनसे सारे पाप नष्ट होते हैं--
रविउग्गमे निसाए ठाद मतो कित्तियं कालं ।।४।।
दृष्टं त्वयि जिनवर नष्टे चैव ज्ञातं महापापम् ।
अर्थ —हे जिनवर ! आपके देखने पर प्रबल पाप नष्ट हो गया ऐसा मुझे मालूम हुआ सो ठीक ही है क्योंकि सूर्य के उदय होने पर रात्रि का अंधकार कितने काल तक रह सकता है ?
भावार्थ —हे जिनेन्द्र ! जिस प्रकार अत्यंत प्रबल भी रात्रि का अंधकार सूर्य के देखते ही पलभर में नष्ट हो जाता है उसी प्रकार हे कृपानिधान ! अत्यंत जबर्दस्त, तथा बड़ा भारी भी पाप आपके दर्शन से पलभर में नष्ट हो जाता है ।।४।।
होइ जणो जेण पहु इह परलोयत्थसिद्धीणं ।।५।।
दृष्टि त्वयि जिनवर सिध्यति स कोऽपि पुण्यप्राग्भर: ।
अर्थ —हे जिनेन्द्र ! आपके देखने से ऐसे किसी उत्तम पुण्यों के समूह की प्राप्ति होती है कि जिसकी कृपा से यह जन इस लोक तथा परलोक दोनों लोक की सिद्धियों का स्वामी हो जाता है।
भावार्थ —जो मनुष्य आपका दर्शन करते हैं उनको हे प्रभो ! ऐसे अपूर्व पुण्य की प्राप्ति होती है कि वे उस पुण्य की कृपा से इस लोक में तो तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि विभूतियों को प्राप्त करते हैं तथा परलोक में अणिमा महिमा आदि ऋद्धियों के धारी इन्द्र अहमिन्द्र आदि विभूतियों को पाते हैं ।।५।।
होही सो जेणासरिससुहनिही अक्खओ मोक्खे ।।६।।
दृष्टे त्वयि जिनवर मन्य तमात्मन: सुकृतलाभम् ।
अर्थ —हे जिनेश ! हे प्रभो ! आपके देखने से उस पुण्य लाभ को मानता हूं जिस पुण्य लाभ से असाधारण सुख की निधि तथा अविनाशी ऐसे मोक्ष पद की प्राप्ति होती है ।।६।।
इंदविहवोपि जणइ ण तण्हालेसंपि जह हियए ।।७।।
दृष्टे त्वयि जिनवर संतोषो मम तथा परोजात: ।
अर्थ —हे जिनेश ! हे जिनेन्द्र ! आपके देखने से मुझे ऐसा उत्तम संतोष हुवा है कि जिस संतोष के सामने इन्द्र का ऐश्वर्य भी मेरे हृदय में तृष्णा के लेश को भी उत्पन्न नहीं करता ।
भावार्थ —संसार में यद्यपि इन्द्र के ऐश्वर्य का पाना भी बड़े भारी पुण्य का फल है तो भी हे जिनेन्द्र ! आपके दर्शन से ही मुझे इतना उत्कृष्ट तथा बड़ा भारी संतोष होता है कि मुझे इन्द्र के ऐश्वर्य के पाने की तृष्णा ही नहीं होती अर्थात् मैं आपके दर्शन से उत्पन्न हुचे संतोष के सामने इन्द्र के ऐश्वर्य को भी सड़े तृण के समान असार मानता हूं ।।७।।
जस्स ण हिठ्ठी दिठ्ठी तस्स ण णियजम्मविच्द्देओ।।८।।
दृष्टे त्वयि जिनवर विकारपरिवर्जिते परमशान्ते।
अर्थ —समस्त प्रकार के विकारों कर रहित तथा परमशांत ऐसे आपको देखकर हे जिनेन्द्र ! जिस मनुष्य की दृष्टि को आनंद नहीं होता उस मनुष्य के स्वीय जन्मों का नाश भी नहीं होता ।
भावार्थ —हे भगवन् ! हे जिनेश ! जो मनुष्य समस्त प्रकार के विकारों कर तथा परमशांत ऐसी आप की मुद्रा को देखकर आनंदित होता है उसको संसार में जन्म नहीं धारण करने पड़ते किंतुजिस मनुष्य की दृष्टि को समस्त विकारों कर रहित तथा शान्त स्वभावी आपको देखकर आनंद नहीं होता उस मनुष्य को अनंत काल तक इस संसार में परिभ्रमण करना पड़ता।।८।।
कइयावि होई पुव्वाजियस्स कम्मस्स सो दोसो ।।९।।
दृष्टे त्वयि जिनवर यन्मम कार्यान्तराकुलं हृदयं ।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेन्द्र ! आपको देखकर भी जो कभी- २ मेरा मन दूसरे- २ कार्यों से आकुलित हो जाता है उसमें मेरे पूर्वोपार्जित कर्म का ही दोष है।
भावार्थ —हे प्रभो ! संसार में आपके दर्शन अलभ्य हैं अर्थात् हर एक मनुष्य को आपके दर्शन नहीं मिल सकते इसलिये यद्यपि आपका दर्शन मन की एकाग्रता से ही करना चाहिये तो भी हे प्रभो ! मैंने जो पूर्व भवों में अशुभ कर्मों का उपार्जन किया है उन अशुभ कर्मों ने मेरे ऊपर इतना अपना प्रभाव जमा रखा है कि आपके दर्शन के होने पर भी मेरा मन दूसरे-२ कार्यों से व्याकुलित हो जाता है इसलिये दूसरे- २ कार्यों में जो मेरा मन आसक्त होता है उसमें पूर्वोपार्जित कर्मों का ही दोष है मेरा कोई दोष नहीं हैं ।।९।।
सहसा सुहेहि घडियं दुक्खेहि पलाइयं दूरं ।।१०।।
दृष्टे त्वयि जिनवर आस्तां जन्मांतरं ममेहापि ।
अर्थ —हे जिनवर प्रभो ! आपके दर्शन से मेरे दूसरे जन्मों की तो बात दूर ही रही किंतुइस जन्म में भी मुझे नाना प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है और मेरे समस्त पाप दूर भाग जाते है।
भावार्थ —हे जिनेश ! आपके दर्शनों में इतनी शक्ति है कि जो मनुष्य आपको विनय भाव से देखता है उस मनुष्य के जन्मजन्मातर के समस्त दु:ख नष्ट हो जाते हैं तथा नाना प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है यह तो कुछ बात नहीं अर्थात् जन्मान्तर के दु:ख तो अवश्य ही नष्ट होते हैं तथा जन्मांतर में सुख मिलता ही है किंतुहे प्रभो ! इस जन्म में भी आपके दर्शनों से नाना प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है तथा समस्त प्रकार के दु:खों का नाश हो जाता है अर्थात् आपके दर्शन तत्काल फल के देने वाले हैं ।।१०।।
सहलत्तणेण मज्झे सव्वदिणाणंपि सेसाणं ।।११।।
दृष्टे त्वयि जिनवर वध्यते पदृो दिनेऽद्यतने ।
अर्थ —हे प्रभो जिनवर ! आपके दर्शनों के होने के कारण समस्त दिनों में आज का दिन उत्तम तथा सफल है ऐसा जानकर पट्टबंधन किया ।
भावार्थ —समस्त दिनों में मेरा आज का दिन उत्तम तथा सफल है ऐसा मैं समझता हूं क्योंकि आज मुझे आपका दर्शन मिला है ।।११।।
सव्वाणंपि सिरीणं संकेयघरेव पडिहाये ।।१२।।
दृष्टे त्वयि जिनवर भवनमिदं जव महार्ध्यतरम् ।
अर्थ —हे प्रभो जिनेश्वर ! आपके देखने से यह जो बहुमूल्य आपका मंदिर है वह मेरे लिये समस्त प्रकार की लक्ष्मी के संकेत घर के समान है ऐसा मुझे मालूम पड़ता है।
भावार्थ —हे भगवन् ! आपके दर्शन से यह आपका स्थान मुझे ऐसा मालूम पड़ता है मानो समस्त प्रकार की लक्ष्मी की प्राप्ति के लिये मेरे लिये संकेत घर है ।।१२।।
आपके दर्शन से समस्त पाप दूर भाग जाते है।--
जंतं पुलयमिसा पुणवीयांकुरियमिव सोहइ।।१३।।
दृष्टे त्वयि जिनपर भक्तिजलौघेन समाश्रितं क्षेत्रम् ।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेन्द्र ! आपके देखने से जो मेरा क्षेत्र (शरीर) भक्तिरूप जल से समाश्रित हुआ (सींचा गया) वह शरीर रोमांचों के बहाने से ऐसा शोभित होता है मानों अंकुर स्वरूप से परिणत पुण्य बीज ही हैं।
भावार्थ —हे प्रभो ! हे जिनेन्द्र ! जिस समय मैं आपको भक्ति पूर्वक देखता हूं उस समय मारे आनंद के मेरे शरीर में रोमांच हो जाते हैं तथा वे रोमांच ऐसे मालूम होते हैं मानों पुण्य रूपी बीज से अंकुर ही उत्पन्न हुए हों ।।१३।।
रायाइदोसकलुसे देवे को मण्णइ सयाणे ।।१४।।
दृष्टे त्वयि जिनवर समयामृतसागरे गंभीरे ।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेन्द्र ! सिद्धांतरूपी अमृत के गंभीर समुद्र, आपके देखने पर ऐसा कौन सा ज्ञानी होगा जो रागादि दोषों से जिनकी आत्मा मलिन हो रही है ऐसे देवों को मानेगा ?
भावार्थ —जब तक मनुष्य ज्ञानी नहीं होता अर्थात् कौन सा पदार्थ मुझे हित का करने वाला है और कौन सा पदार्थ मुझे अहित का करने वाला है ऐसा मनुष्य को ज्ञान नहीं होता तब तक वह जहां तहां रागी तथा द्वेषी भी देवों को उत्तम देव समझता है किंतुजिस समय उसको हिताहित ज्ञान हो जाता है उस समय वह रागी तथा द्वेषी देवों को न अपना हितकारी मानता है तथा उनके पास भी नहीं झांकता है इसलिये हे प्रभो ! जिसने सिद्धांतरूपी अमृत के समुद्र आपको देख लिया है वह ज्ञानवान् प्राणी कभी भी रागी तथा द्वेषी देवों को नहीं मान सकता है ।।१४।।
मिच्छत्तमलकलंकी मणो ण जइ होइ पुरिसस्स ।।१५।।
दृष्टे त्वयि जिनवर मोक्षोऽतिदुर्लभ: संप्रतिपद्यते ।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेश ! यदि मनुष्य का मन मिथ्यात्वस्पी कलंक से कलंकित नहीं हुआ हो तो वह पुरुष आपके दर्शन से अत्यंत दुर्लभ भी मोक्ष की भलीभांति प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ —यदि मनुष्य का चित्त मिथ्यात्वरूपी मल से ग्रस्त हो जावे तो उस मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति हो ही नहीं सकती क्योंकि जिस प्रकार पित्तज्वर वाले को मीठा भी दूध जहर के समान कडुआ लगता है उसी प्रकार उस मिथ्यादृष्टि को आपका उपदेश तथा आपका दर्शन विपरीत ही मालूम पड़ता है और तब वह आपके उपदेश को ही अच्छा न मानेगा तब तक उसको वास्तविक पदार्थ का स्वरूप नहीं मालूम पड़ सकता और वास्तविक स्वरूप के न जानने से वह मोक्ष को नहीं जा सकता किंतुजिस मनुष्य का मन मिथ्यात्वरूपी कलंक से कलंकित नहीं है अर्थात् जो मनुष्य सम्यग्दृष्टि है वह मनुष्य आपके दर्शन से अत्यंत कठिन भी मोक्ष को सुलभरीति से प्राप्त कर लेता है ।।१५।।
जं जणह पुरोकेवलदंसणणाणाइ णयणाई ।।१६।।
दृष्टे त्वयि जिनवर चर्ममयेनाक्ष्णापि तत्पुण्यं ।
अर्थ —हे प्रभो ! जो मनुष्य आपके चर्म के नेत्रों से देख लेता है उस मनुष्य को जब उस चर्म के नेत्र से देखते ही इतने पुण्य की प्राप्ति होती है कि वह आगे केवलदर्शन तथा केवलज्ञान को भी प्राप्त कर लेता है अर्थात् वह पुरुष चारघातिया कर्मों को नाशकर केवली बन जाता है तब जो पुरुष आपको दिव्य नेत्र से देखता है उसको क्या- २ फल की प्राप्ति न होगी अर्थात् दिव्यदृष्टि से आपको देखने वाला मनुष्य तो अवश्य ही अचिंत्य फल को प्राप्त करता है इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं।।१६।।
सो वहुअ वडुणोद्वुडुणाइ भवसायरे काही।।१७।।
दृष्टे त्वयि जिनवर सुकृतार्थो मानितो न येनात्मा।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेश ! जिस मनुष्य ने आपको देखकर भी अपनी आत्मा को कृतकृत्य नहीं माना वह मनुष्य नियम से संसाररूपी समुद्र में मज्जन तथा उन्मज्जन को करेगा अर्थात् जिस प्रकार मनुष्य समुद्र में उछलता तथा डूबता है उसी प्रकार वह मनुष्य बहुत काल तक संसार में जन्म-मरण करता हुआ भ्रमण करेगा ।।१७।।
ण गिराइगोयरं तं साणुभवथंपि विंâ भणिमो ।।१८।।
दृष्टे त्वयि जिनवर निश्चयदृट्या भवति यत्किमपि ।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेश ! वास्तविक दृष्टि से आपके देखने पर जो कुछ हमको (आनंद) होता है वह यद्यपि हमारे मन में स्थित है तो भी वह वचन के अगोचर ही है इसलिये हम उसके विषय में क्या कहें ?
भावार्थ —हे प्रभो ! जिस समय मैं आपको निश्चय दृष्टि से देख लेता हूं उस समय मुझे इतना आनंद होता है कि मैं यद्यपि अपने आप उसको जानता हूं तो भी उसको वचन से नहीं कह सकता ।।१८।।
दंसणसुद्धायणगयं दाणिं मम णत्थि सव्वत्थ ।।१९।।
दृष्टे त्वयि जिनवर दृष्टव्यावधिविशेषरूपे ।
अर्थ —हे प्रभो जिनेन्द्र ! देखने योग्य पदार्थों की सीमा के विशेष स्वरूप अर्थात केवलज्ञान स्वरूप आपके देखने पर मैं दर्शनविशुद्धि को प्राप्त हुआ और इस समय जितने भर बाह्य पदार्थ हैं वे मेरे नहीं हैं ।।१९१।।
जणदिठ्ठी को पेच्छइ तद्दंसणसुहयरं सूरं ।।२०।।
दृष्टे त्वयि जिनवर अधिंक सुखिता समुज्ज्वला भवति ।
अर्थ —हे भगवन् ! आपको देखकर मनुष्यों की दृष्टि अधिक सुखी तथा अत्यंत निर्मल होती है इसलिये दर्शन को सुख के करने वाले सूर्य को कौन देखता है ? अर्थात् कोई नहीं ।
भावार्थ —यद्यपि संसार में आप तथा सूर्य दोनों ही प्रतापी हैं और दोनों ही देखने योग्य पदार्थ हैं किंतुहे प्रभो ! जब आपके दर्शन से ही मनुष्यों की दृष्टि अधिक सुखी तथा अत्यंत स्वच्छ हो जाती है तब सूर्य के देखने की क्या आवश्यकता है ? ।।२०।।
कस्स किल रमइ दिठ्ठी जडम्मि दोसायरे खत्थे ।।२१।।
दृष्टे त्वयि जिनवर वुद्धे दोषोज्झिते वीरे ।
अर्थ —हे जिनेन्द्र ! ज्ञानावान समस्त दोषों कर रहित और वीर ऐसे आपको देखकर ऐसा कोई मनुष्य है जिसकी दृष्टि जड़ तथा दोषाकर और आकाश में रहने वाले ऐसे चंद्रमा में प्रीति को करें।
भावार्थ —यद्यिपि चंद्रमा भी मनुष्यों को आनंद का देने वाला है किंतुहे प्रभो ! चंद्रमा ज्ञानरहित जड़ है और दोषाकार है तथा आकाश में ऊपर रहने वाला है और आप ज्ञानवान हैं अर्थात् ज्ञानस्वरूप हैं और क्षुधातृषा आदि अठारह दोषों के जीतने वाले हैं तथा अष्ट कर्मों के जीतने के कारण आप वीर हैं इसलिये आपको छोड़कर ऐसा कौन मनुष्य है जिसकी दृष्टि चंद्रमा में प्रीति को करेगी ? ।।२१।।
आचार्य स्त्रोत में बताते हैं|--
खज्जोयव्व पहाये मज्झ मणे णिप्पहा जाया ।।२२।।
दृष्टे त्वयि जिनवर चिंतामणिकामधेनुकल्पतरव:।
अर्थ —हे प्रभो जिनेन्द्र ! आपके देखने पर जिस प्रकार सुबह के समय में पटबीजना प्रभा रहित हो जाता है उसी प्रकार चिंतामणि कामधेनु और कल्पवृक्ष भी मेरे मन में प्रभारहित हो गये।
भावार्थ —जब तक अंधेरी रात रहती है तब तक तो पटबीजना का प्रकाश भी प्रकाश समझा जाता है किंतुजिस समय प्रात: काल होता है और सूर्य की किरण जहां तहां चारों ओर कुछ फैल जाती है उस समय जिस प्रकार उस पटबीजना का प्रकाश कुछ भी नहीं समझा जाता उसी प्रकार हे प्रभो ! जब तक मैं ने आपको नहीं देखा था तब तक मैं चिंतामणि कामधेनु तथा कल्पवृक्षों को उत्तम समझता था क्योंकि संसार में ये इच्छा के पूरण करने वाले गिने जाते हैं किंतुजिस समय से मैंने आपको देख लिया है उस समय से मेरे मन में आप ही तो चिंतामणि हैं तथा आप ही कामधेनु और कल्पवृक्ष हैं किंतुजिनको संसार में चिंतामणि कामधेनु कल्पवृक्ष कहते हैं वे आपके दर्शन के सामने फीके हैं ।।२२।।
आणांदासुमिसासो तत्तो णीहरइ बहिरंतो ।।२३।।
दृष्टे त्वयि जिनवर रहस्यरसो मम मनसि योजात: ।
अर्थ —हे जिनेश ! आपको देखने से जो मेरे मन में रहस्यरस (प्रेमरस) उत्पन्न हुवा है वह प्रेमरस आनंदाश्रुओं के ब्याज से भीतर से बाहर निकलता है ऐसा मालूम होता है। अर्थ —हे प्रभो ! हे दीनबन्धो ! मैं जिस समय आपको देखता हूं उस समय मेरे मन में इतना अधिक आनंद होता है कि मारे आनंद के मेरी आखों में आंसू निकल आते हैं किंतु मैं उनको आनंदाश्रु नहीं कहता क्योंकि मुझे ऐसा जान पड़ता है कि आनंद के आंसुओं से ब्याज से भीतर न समाता हुवा प्रेमरस ही बाहर निकलता है ।।२२।।
संचरइ अणाहूयावि ससहरे किरणामालव्व ।।२३।।
दृष्टे त्वयि जिनवर कल्याणपरंपरा पुर: पुरुषस्य ।
अर्थ —हे प्रभो जिनेन्द्र ! जिस प्रकार चंद्रमा में किरणों की माला (पंक्ति) आगे गमन करती है उसी प्रकार आपके दर्शन से पुरुषों के सामने बिना बुलाये भी कल्याणों की परंपरा आगे गमन करती है।
अर्थ —जो मनुष्य आपका दर्शन करता है उसको इस भव में तथा पर भव में नाना प्रकार के कल्याणों की प्राप्ति होती है ।।२३।।
इठ्ठं अहुल्लियाविहु वरिसइ सुण्णंपि रयणेहिं ।।२४।।
दृष्टे त्वयि जिनवर दिशवल्य: फलंति सर्वा: ।
अर्थ —हे प्रभो जिनेश्वर ! आपके दर्शन से बिना पुष्पित भी समस्त दशदिशारूपी लता इष्ट पदार्थों को देती है तथा रत्नोंकर रहित भी आकाश रत्नों की वृष्टि करता है।
भावार्थ —यद्यपि नियम यह है कि लता पुष्पित होकर फल को देती है किंतुहे प्रभो ! आपके दर्शनों में इतनी शक्ति है कि नहीं पुष्पित होकर भी मनुष्यों को दिशारूपी लता इष्टफल को देती हैं तथा रत्नों कर रहित भी आकाश आपके दर्शनों की कृपा से रत्नों की वृष्टि को करता है ।।२४।।
गणणिदच्चिय जायद जोण्हापसरे सरे कुमुअं ।।२५।।
दृष्टे त्वयि जिनवर भव्यो भयवर्जितो भवन्नवरिम् ।
अर्थ —जिस प्रकार चांदनी के फैलने पर सरोवर में रात्रिविकाशी कमल शीघ्र ही प्रफुल्लित हो जाते हैं उसी प्रकार हे जिनेश ! आपके केवल दर्शन से ही भव्यजीव समस्तकार के भयोंकर रहित तथा मोहरूपी निद्रा से रहित सुखी हो जाते हैं।
भावार्थ —जिस प्रकार रात्रि विकाशी कमलों के संकोच रहित पने में तथा प्रफुल्लता में चंद्रमा की चांदनी असाधारण कारण है उसी प्रकार हे प्रभो ! भव्य जीवों के मोहनिद्र के रहितपने में तथा समस्त प्रकार के भयों को दूर करने मेंं आप ही असाधारण कारण हैं और दूसरा कोई नहीं ।।२५।।
सरिणाहेणिव सहसा उग्गमिए पुण्णिमा इंदे ।।२६।।
दृष्टे त्वयि जिनवर हृदयेन महासुख समुल्लसितम् ।
अर्थ —हे जिनेश ! हे प्रभो ! जिस प्रकार चंद्रमा के उदय होने पर समुद्र शीघ्र ही उल्लास को प्राप्त होता है उसी प्रकार आपके दर्शन से भी मेरे हृदय में अत्यंत प्रसन्नता होती है।
भावार्थ —जिस समय पूर्णिमासी के चंद्रमा को देखकर समुद्र उछलता है उस समय यद्यपि चंद्रमा समुद्र के उछलने के लिये प्रेरणा नहीं करता किंतुचंद्रमा के उदय होते ही जिस प्रकार वह स्वभाव से ही उल्लास को प्राप्त होता है उसी प्रकार हे प्रभो ! आपको देखकर आपकी प्रेरणा से मेरा मन प्रसन्न नहीं होता किंतु आपके देखने से ऐसा अपूर्व आनंद होता है जिससे वह स्वभाव से ही प्रसन्न हो जाता है ।।२६।।
हियये जह सहसाहो होहित्ति मणोरहो जात: ।।२७।।
दृष्टे त्वयि जिनवर द्वाभ्यां चक्षुभ्र्यां तथा सुखी अधिकं ।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेश ! आपको देखकर मैं इतना हृदय में अधिक सुखी हुवा मानो बहुत शीघ्र मेरे प्रयोजन सिद्ध होवेंगे ऐसा मेरा मनोरथ ही सिद्ध हुवा ।
भावार्थ —मनुष्य की जो अभिलाषा हुआ करती है यदि उसकी सिद्धि शीघ्र होने वाली हो तो जिस प्रकार उस मनुष्य के हृदय में वचनातीत आनंद होता है उसी प्रकार हे प्रभो आपको देखकर मुझे भी वचनातीत आनंद हुआ अर्थात् मैं आपके दर्शन से अत्यंत सुखी हुआ ।।२७।।
एयम्मि ठियस्स जओ जायं तुह दंसणं मज्झ ।।२८।।
दृष्टे त्वयि जिनवर भवोऽपि मित्रत्वं गत एष ।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेश ! आपके दर्शन से यह जन्म भी मेरा परममित्र बन गया क्योंकि इस जन्म में रहने वाले मुझे आपका दर्शन हुआ है।
भावार्थ —संसार में जितने भर दु;खों को उत्पन्न करने वाले पदार्थ हैं वे किसी के हितकारी मित्र नहीं होते इसलिये यद्यपि जन्म जीवों का मित्र नहीं हो सकता क्योंकि वह जीवों के नाना प्रकार के दु;खों का देने वाला है किन्तु हे प्रभो आपके दर्शन से वह जन्म मित्र ही बन गया क्योंकि अनेक जन्मों से आपका दर्शन नहीं मिला है किंतुइसी जन्म में आपका दर्शन मुझे भाग्य से मिला है ।।२८।।
सव्वाओ सिद्धीओ होंति पुरो एक्कलीलाए ।।२९।।
दृष्टे त्वयि जिनवर भव्यानां भूरिभक्तियुक्तानाम् ।
अर्थ —हे प्रभो ! हे भगवन् ! गाढ़ जो भक्ति उस भक्ति कर सहित जो भव्यजीव हैं उनको आपके दर्शन से बात की बात में समस्त प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है।
भावार्थ —संसार में उत्तमोत्तम सिद्धियों की प्राप्ति यद्यपि उत्यंत कठिन है किंतुहे प्रभो ! जो मनुष्य आपके गाड़ भक्त हैं अर्थात् आप में भक्ति तथा श्रद्धा रखते हैं उन मनुष्यों को केवल आपके दर्शन से ही समस्त प्रकार की सिद्धियां बात की बात में आगे आकर उपस्थित हो जाती हैं ।।२९।।
कंठगयजीवियस्सवि धीरं संपज्जए परमं ।।३०।।
दृष्टे त्वयि जिनवर शुभगतिसंसाधनैकबीजे ।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेन्द्र ! शुभ गति की सिद्धि में एक असाधारण कारण ऐसे आपके दर्शन से जिस प्राणी के प्राण कंठ में आ गये हैं अर्थात् जो तत्काल मरने वाला है ऐसे उस प्राणी को उत्तमधीरता आ जाती है।
भावार्थ —जिस प्रकार किसी जीव पर अधिक कष्ट आकर पड़े और उस समय यदि कोई उसका हितैषी मनुष्य सामने पड़ जावे तो उसको एकदम धीरता आ जाती है उसी प्रकार हे प्रभो ! जिस मनुष्य के प्राण सर्वथा कंठ में आ पंहुचे हैं अर्थात् जो शीघ्र ही मरने वाला है उस मनुष्य को यदि आपका दर्शन हो जावे तो वह शीघ्र ही धीर वीर बन जाता है अर्थात् उसको मरण से किसी प्रकार का भय नहीं रहता क्योंकि आप जीवों को शुभ गति की प्राप्ति में एक असाधारण कारण है इसलिये वह आपके दर्शन से समझ लेता है कि अब मेरे समस्त दु:ख दूर हो गये ।।३०।।
सिद्धियरं को णाणी यहइ ण तुह दंसणं तह्मा ।।३१।।
दृष्टे त्वयि जिनवर क्रमे सिद्धे न किं पुरा सिद्धम् ।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेश ! आपके दर्शन से आपके चरण कमलों की प्राप्ति होने पर ऐसी कौन सी वस्तु बाकी रही जो मुझे न मिली हो ? अर्थात् समस्त पदार्थों की सिद्धि हुई इसलिये ऐसा कौन सा ज्ञानी है जो आपके दर्शनों की इच्छा न रखता हो ? अर्थात् समस्त ज्ञानी पुरुष आपके दर्शनों की इच्छा रखते हैं।
भावार्थ —हे प्रभो ! और तो समस्त प्रदार्थों की सिद्धि अनेक जन्मों में मुझे बहुत समय हुई है किंतुहे जिनेश ! आपके चरणों की प्राप्ति मुझे नहीं हुई है इसलिये यदि इस समय आपके दर्शन से मुझे आपके चरणों की प्राप्ति हो गई तो संसार में समस्त पदार्थों की सिद्धि हो गई अत: ऐसा कोई ज्ञानी नहीं है जो आपके दर्शनों की इच्छा न करें किंतुसमस्त ज्ञानीपुरुष आपके दर्शनों के लिये लालायित हैं ।।३१।।
जो पहु पढइ तियालं भवजालं सो समोसरई ।।३२।।
दृष्टे त्वयि जिनवर पद्नंदिकृतां दर्शनस्तुतिं तव ।
अर्थ —हे प्रभो जिनेश ! जो भव्य जीव पद्मनंदिनाम के आचार्य द्वारा की गई आपकी दर्शन स्तुति को तीनों काल पढ़ता है वह भव्य जीव संसाररूपी जाल का सर्वथा नाश कर देता है।
भावार्थ —यद्यपि संसाररूपी जाल का सर्वथा नाश करना अत्यंत कठिन बात है किंतुहे प्रभो ! जो मनुष्य ! श्री पद्मनंदिनामक आचार्य द्वारा की गई ऐसी आपकी स्तुति को प्रात:काल मध्याह्नकाल और सायंकाल तीनों काल पढ़ता है वह मनुष्य शीघ्र ही संसाररूपी जाल का नाश कर देता है ।।३२।।
भव्वेहि पढज्जंतं णंदउ सुयरं धरापीठे ।।३३।।
दृष्टे त्वयि जिनवर भणितमिदं जनितजनमन आनंदम् ।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेन्द्र आपको देखकर कहा हुवा तथा समस्त भव्यजनों के मनों को आनंद का देने वाला और भव्यजीवों द्वारा पाठ्यमान अर्थात् जिसका सदा भव्यजीव पाठ करते रहते हैं ऐसा यह आपका दर्शन स्तोत्र सदा इस पृथ्वी पर वृद्धि को प्राप्त हो ।।३३।।
इस प्रकार श्री पद्मनंदिआचार्यविरचित श्री पद्मनंदिपंचविंशतितका में जिनेन्द्रस्तवन नामक अधिकार समाप्त हुआ।
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