"तीर्थंकर पंचकल्याणक तीर्थ पूजा" के अवतरणों में अंतर
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१७:३१, २ जुलाई २०२० का अवतरण
तीर्थंकर पंचकल्याणक तीर्थ पूजा
ऋषभदेव से महावीर तक, चौबिस तीर्थंकर प्रभु हैं। इन सबके पंचकल्याणक से, पावन तेईस तीर्थ भू हैं।। मेरा भी हो कल्याण प्रभो! मैं पंचकल्याणक तीर्थ नमूँ। आह्वानन स्थापन एवं, सन्निधीकरण विधि से प्रणमूँ।। ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणाम् पंचकल्याणक तीर्थसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं। ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणाम् पंचकल्याणक तीर्थसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं। ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणाम् पंचकल्याणक तीर्थसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं। -अष्टक (शंभु छंद)- इस जग में काल अनादी से, हर प्राणी तृषा समन्वित है।
तीरथ पद में जलधारा कर, हो सकती तृष्णा विस्मृत है।। जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं। उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।१।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। तीरथ यात्रा से सचमुच ही, आत्मा में परमशांति मिलती। चन्दन पूजा संसार ताप को, दूर हटा सब सुख भरती।। जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं। उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।२।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। अक्षयपद पाकर जिनवर ने, आत्मा को तीर्थ बना डाला। अक्षत ले शुभ्र धवल मुट्ठी में, मैंने पुंज चढ़ा डाला।। जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं। उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।३।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणक-तीर्थेभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। कुछ तीर्थंकर ने ब्याह किया, कुछ ने नहिं ब्याह रचाया है। विषयों की इच्छा तजकर ही, सबने तप को अपनाया है।। जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं। उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।४।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणक-तीर्थेभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। स्वर्गों का भोजन भी तजकर, तीर्थंकर प्रभु ने दीक्षा ली। हर प्राणी को दीक्षा लेने के, हेतु प्रभू ने शिक्षा दी।। जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं। उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।५।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणक-तीर्थेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। निज ज्ञान का दीप जलाकर प्रभु ने, जग को ज्ञान प्रकाश दिया। हमने घृतदीप जला आरति, करके कुछ आत्मविकास किया।। जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं। उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।६।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य: मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। निज शुक्लध्यान की अग्नी में, कर्मों की धूप दहन करके। जिनवर ने शिवपद पाया हम भी, धूप अग्नि में दहन करें।। जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं। उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।७।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। जिस मोक्षमहाफल के निमित्त, प्रभु ने उग्रोग्र तपस्या की। उसकी अभिलाषा करके ही, हमने फल थाली अर्पित की।। जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं। उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।८।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। जल गंध सुअक्षत पुष्प चरू, दीपक वर धूप फलादि लिया। ‘‘चन्दनामती’’ तीर्थंकर बनने, हेतु तीर्थ पद चढ़ा दिया।। जो तीर्थभूमियाँ तीर्थंकर के, पंचकल्याण से पावन हैं। उनकी पूजा भक्ती करने से, आत्मा होती पावन है।।९।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य: अनघ्र्यपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। -शेरछंद- तीर्थंकरों के पंचकल्याणक की भूमियाँ। पावन हैं सभी के लिए वे तीर्थभूमियाँ।। तीर्थों की अर्चना में शांतिधार करूँ मैं। निज शांति के संग विश्वशांति भाव धरूँ मैं।।१०।। शांतये शांतिधारा। जिन उपवनों में जिनवरों ने की थी तपस्या। सब ऋतु के पूâल-फल से फलित वृक्ष थे वहाँ।। इन पुष्पों में भी उन्हीं पुष्प की है कल्पना। पुष्पांजली के द्वारा करूँ तीर्थ अर्चना।।११।। दिव्य पुष्पांजलि:।।
पंचकल्याणक तीर्थों के अघ्र्य प्रभु ऋषभदेव की गर्भ जन्म-कल्याणक भूमि अयोध्या है। अजितेश्वर अभिनंदन के गर्भ, जन्म तप ज्ञान हुए यहाँ हैं।। श्री सुमतिनाथ व अनंतनाथ के, चार कल्याणक से पावन। मैं अघ्र्य चढ़ाकर नमूँ अयोध्या, तीर्थ सदा है मनभावन।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्यतीर्थंकर गर्भजन्मकल्याणक-पवित्र अजितनाथ अभिनंदननाथ सुमतिनाथ अनंतनाथ-तीर्थंकरा गर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञानचतु: चतु:कल्याणकपवित्र-शाश्वत जन्मभूमि अयोध्यातीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। श्री संभवजिन की गर्भजन्मतप-ज्ञानभूमि श्रावस्ती है। जहाँ मात सुषेणा के आंगन में, हुई रत्न की वृष्टी है।। उस श्रावस्ती तीरथ को अघ्र्य, चढ़ाकर पुण्य कमाना है।। उसकी यात्रा अरु पूजा कर, आत्मा को तीर्थ बनाना है।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथतीर्थंकर गर्भजन्मतपज्ञानचतु:-कल्याणकपवित्र श्रावस्तीतीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। जब-जब प्रभु मैंने अष्टद्रव्य का, स्वर्णिम थाल सजाया है। तब-तब मैंने ‘‘चन्दनामती’’, लोकोत्तर वैभव पाया है।। कौशाम्बी नगरी पद्मप्रभू की, जन्मभूमि कहलाती है। उन गर्भ जन्म तप और ज्ञान से, पावन मानी जाती है।। चार कल्याणक से सहित, पावन तीर्थ महान। कौशाम्बी व प्रभासगिरि, को दूँ अघ्र्य महान।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभतीर्थंकर गर्भजन्मतपज्ञानचतु:-कल्याणकपवित्र कौशाम्बी-प्रभासगिरितीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। जिनवर सुपाश्र्व अरु पाश्र्वनाथ के, कल्याणक से पावन है। उनके प्राचीन कथानक से, जो तीर्थ प्रसिद्ध बनारस है।। उस तीरथ से प्रार्थना मेरी, आत्मा भी तीरथ बन जावे। मैं अघ्र्य समर्पित करूँ प्रभो, मुझको अनघ्र्य पद मिल जावे।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपाश्र्वनाथतीर्थंकर गर्भजन्मतपज्ञानचतु:-कल्याणकपवित्र पाश्र्वनाथस्य च गर्भजन्मतपत्रिकल्याणकपवित्रवाराणसीतीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। चन्द्रप्रभ जी के चार कल्याणक, से पवित्र जो नगरी है। चिरकाल बीत जाने पर वह, वीरान हो गई नगरी है।। लेकिन प्रभु की रज लेने, चन्द्रपुरी में भक्त पहुँचते हैं। उस तीरथ के दर्शन कर भाव से, अघ्र्य समर्पित करते हैं।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकर गर्भजन्मतपज्ञानचतु:-कल्याणक पवित्र चन्द्रपुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। -शेरछंद- श्री पुष्पदंत जिनवर के चार कल्याणक। काकन्दि में हुए अत: वह तीर्थ नमूँ नित।। देवों ने आकर के वहाँ उत्सव बहुत किया। ले अघ्र्य थाल तीर्थ को मैंने चढ़ा दिया।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथतीर्थंकर गर्भजन्मदीक्षा-ज्ञानचतु:कल्याणक पवित्र काकन्दीतीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। जहाँ पर श्री शीतलनाथ प्रभू के चार हुए कल्याणक हैं। उस भद्दिलपुर का कण-कण भी, पावन व पूज्य अद्यावधि है।। चारों कल्याणक से पवित्र, तीरथ को नमन हमारा है। श्रद्धा भक्ती के साथ समर्पित, यह शुभ अघ्र्य हमारा है।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथतीर्थंकर गर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञान-चतु:कल्याणक पवित्र भद्दिलपुरतीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। श्रेयांसनाथ के गर्भ जन्म तप, चार कल्याणक हुए जहाँ। वह सिंहपुरी है सारनाथ, जो तीर्थ बनारस पास कहा। चारों कल्याणक से पवित्र, श्री सिंहपुरी को वंदन है। यह अघ्र्य समर्पित कर चाहूँ, तीरथ पूजन का शुभ फल मैं।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथतीर्थंकर गर्भजन्मदीक्षाकेवलज्ञान-चतु:कल्याणक पवित्र सिंहपुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। -शेरछंद- चम्पापुरी इक मात्र ऐसा तीर्थ है पावन। जहाँ वासुपूज्य प्रभु के हुए पाँचों कल्याणक।। चम्पापुरी में ही कहा मंदारगिरि स्थल। पूजूँ जहाँ प्रसिद्ध वासुपूज्य धर्मस्थल।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यनाथतीर्थंकर गर्भजन्मदीक्षा-केवलज्ञान-मोक्ष-पंचकल्याणक पवित्र चम्पापुरी तीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। श्री विमलनाथ तेरहवें तीर्थंकर का अर्चन करना है। उनके चारों कल्याणक से, पावन तीरथ को भजना है।। उस कम्पिल जी में अद्यावधि, प्राचीन कथानक मिलता है। उसको शुभ अघ्र्य चढ़ाने से, निज मन का उपवन खिलता है।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथतीर्थंकर गर्भजन्मदीक्षाकेवल-ज्ञान-चतु:कल्याणक पवित्र कम्पिलपुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। पन्द्रहवें जिनवर धर्मनाथ के, जहाँ चार कल्याण हुए। जिनधर्मतीर्थ संचालित करके, वे तिहुं जग में मान्य हुए।। मैं उन चारों कल्याणक से, पावन धरती को नमन करूँ। ले अष्टद्रव्य का थाल रत्नपुरि, तीरथ का मैं यजन करूँ।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथतीर्थंकर गर्भजन्मतपज्ञानचतु:-कल्याणक पवित्र रत्नपुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। जहाँ तीर्थंकरत्रय कामदेव, चक्री पद के धारी जन्मे। छह खंड जीतकर हस्तिनागपुर-नगरी के राजा वे बने।। उस भू पर उनके चार-चार, कल्याणक इन्द्र मनाते थे। वह तीर्थ जजूँ मैं अघ्र्य चढ़ा, जिसकी महिमा सुर गाते थे।।१२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीशांतिनाथकुंथुनाथअरनाथ-जिनेन्द्राणां गर्भजन्मतपज्ञान चतु:चतु:कल्याणकपवित्र हस्तिनापुरतीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। मिथिलापुरि की जिस धरती पर, श्री मल्लि व नमिप्रभु जन्मे हैं। उन दोनों प्रभु के गर्भ जन्म, तप ज्ञान कल्याण वहीं पे हैं।। उस नगरी को मैं अघ्र्य चढ़ाकर, एक यही प्रार्थना करूँ। रत्नत्रय निधि हो पूर्ण मेरी, तब भव सन्तति खंडना करूँ।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथनमिनाथतीर्थंकर गर्भजन्मदीक्षा-केवलज्ञान चतु:चतु:कल्याणकपवित्र मिथिलापुरीतीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। -रोला छंद- मुनिसुव्रत भगवान, के चारों कल्याणक। हुए राजगृह माँहि, अत: धरा वह पावन।। ले पूर्णाघ्र्य सुथाल, श्रद्धा सहित चढ़ाऊँ। मन का मैल उतार, तीरथ का फल पाऊँ।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथतीर्थंकर गर्भजन्मदीक्षाकेवल-ज्ञानचतु:कल्याणक-पवित्र राजगृहीतीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। -दोहा- गर्भ जन्म प्रभु नेमि के, हुए जहाँ सुपवित्र। अघ्र्य चढ़ा अर्चन करूँ, शौरीपुर की नित्य।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथतीर्थंकर गर्भजन्मकल्याणकपवित्र-शौरीपुरतीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। जिस नगरी की रज महावीर के, तीन कल्याण से पावन है। जहाँ इन्द्र-इन्द्राणी की भक्ती का, सदा महकता सावन है।। उस कुण्डलपुर में नंद्यावर्त, महल का सुन्दर परिसर है। मैं अघ्र्य चढ़ाकर नमूँ वहाँ, प्रभु वीर की प्रतिमा मनहर है।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्रगर्भजन्मदीक्षाकल्याणक-पवित्र कुण्डलपुरतीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।(१७) प्रभु ऋषभदेव की दीक्षा एवं ज्ञानभूमि का अर्चन है। तीरथ प्रयाग के प्रति मेरा, श्रद्धायुत भाव समर्पण है।।टेक.।। युग की आदी में सर्वप्रथम, जब केशलोंच की क्रिया हुई। उत्कृष्ट महाव्रत धारण करने, की पहली प्रक्रिया हुई।। वह भूमि प्रयाग बनी तब से, उसको मेरा शत वन्दन है। तीरथ प्रयाग के प्रति मेरा, श्रद्धायुत भाव समर्पण है।।१।। वहीं पुरिमतालपुर उपवन में, जिनवर को केवलज्ञान हुआ। इक सहस वर्ष तप करने के, पश्चात् उन्हें यह लाभ हुआ।। देवों ने समवसरण रचना में, बैठ किया प्रभु अर्चन है। तीरथ प्रयाग के प्रति मेरा, श्रद्धायुत भाव समर्पण है।।२।। त्याग प्रकृष्ट हुआ जहाँ, वह है तीर्थ प्रयाग। उस तीरथ की अर्चना, भरे धर्म अनुराग।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवतीर्थंकर दीक्षाकल्याणककेवलज्ञान-कल्याणक पवित्र प्रयागतीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु पाश्र्वनाथ पर जहाँ कमठचर, देव ने आ उपसर्ग किया। धरणेन्द्र व पद्मावती ने प्रभु को, उठा शीश पर छत्र किया।। उस केवलज्ञान कल्याणक तीरथ, अहिच्छत्र को वन्दन है। भूगर्भ से निकली पाश्र्वनाथ, प्रतिमा को अघ्र्य समर्पण है।।१८।।
ॐ ह्रीं श्रीपाश्र्वनाथतीर्थंकर केवलज्ञानकल्याणकपवित्र अहिच्छत्र-तीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।(१९) कुण्डलपुर निकट जृंभिका में, ऋजुवूâला तट पर ज्ञान हुआ। उसके ऊपर गगनांगण में, प्रभु समवसरण निर्माण हुआ।। मैं केवलज्ञान कल्याणक की, भूमी का नित्य यजन कर लूँ। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हेतु, प्रभु वीर को मैं वंदन कर लूँ।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरतीर्थंकर केवलज्ञानकल्याणक-पवित्र जृंभिकातीर्थक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।(२०) ऋषभदेव निर्वाणभूमि, वैâलाशगिरी को नम लो। पूजन के माध्यम से अपने, प्रभु का सुमिरन कर लो।। प्रभू की जय जय जय, प्रभू की जय जय जय.।।टेक.।। भरतचक्रवर्ती निर्मित, जहाँ है त्रिकाल चौबीसी। उस गिरिवर के अष्टापद से, पाई प्रभु ने सिद्धी।। अघ्र्य थाल उस गिरि के सम्मुख, सब मिल अर्पण कर लो। पूजन के माध्यम से अपने, प्रभु को सुमिरन कर लो।। बोलो जय जय जय, बोलो जय जय जय.।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवतीर्थंकर निर्वाणभूमि कैलाशपर्वत-सिद्धक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।(२१) सिद्धक्षेत्र गिरनारगिरी, गुजरात प्रान्त का तीरथ है। प्रभु नेमिनाथ के मोक्षगमन से, पावन उसकी कीरत है।। तप, ज्ञान और निर्वाण तीन, कल्याणक स्थल को वंदूँ। राजुलमति की भी तपोभूमि, सिरसा वन का अर्चन कर लूँ।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथतीर्थंकर दीक्षाकेवलज्ञानमोक्ष-कल्याणकपवित्र गिरनारगिरि सिद्धक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।(२२) जिस वसुधा से प्रभु महावीर ने, अष्टम वसुधा प्राप्त किया। ‘‘चन्दनामती’’ उस वसुधा को, दे अघ्र्य सहज सुख प्राप्त हुआ।। निर्वाणभूमि पावापुर का, अर्चन सबको सुखकारी है। सरवर विच निर्मित जलमंदिर का, दर्शन निज हितकारी है।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरतीर्थंकर निर्वाणकल्याणकपवित्र पावापुरी सिद्धक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।(२३) तीर्थराज सम्मेदशिखर है, शाश्वत सिद्धक्षेत्र जग में। एक बार जो करे वंदना, वह भी पुण्यवान सच में।। ऊँचा पर्वत पाश्र्वनाथ हिल, नाम से जाना जाता है। जिनशासन का सबसे पावन, तीरथ माना जाता है।।१।। बीस तीर्थंकर इस पर्वत से, कर्म नाशकर मोक्ष गये। लेकिन इससे पूर्व अनंतानंत, जिनेश्वर मोक्ष गये।। इसीलिए यह अनादि अनिधन, तीर्थ पूज्य कहलाता है। इस गिरि के वंदन-अर्चन से ही, स्वर्ग-मोक्ष मिल जाता है।।२।। ॐ ह्रीं वर्तमानकालीन विंशतितीर्थंकराणां निर्वाण-कल्याणकपवित्रशाश्वततीर्थसम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। श्री मांगीतुंगी आदि सिद्ध-क्षेत्रों को नमन हमारा है। श्री महावीर जी महावीर प्रभु के अतिशय से प्यारा है।। ऐसे ही पदमपुरा आदिक, अतिशय क्षेत्रों को वंदन है। इन सबको अघ्र्य चढ़ाकरके, कर्मों का कर लूँ खंडन मैं।।२४।। ॐ ह्रीं मांगीतुंगीआदि सिद्धक्षेत्र-महावीरजीपदमपुरा आदि अतिशयक्षेत्रेभ्यो अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। -पूर्णाघ्र्य- सोलह जन्मभूमि त्रय दीक्षा-केवलज्ञान के तीरथ हैं। निर्वाणभूमि के चार पृथक् ही, सिद्धक्षेत्र के तीरथ हैं।। चौबीसों तीर्थंकर के पंचकल्याणक तीर्थों को वंदूँ। कुछ सिद्धक्षेत्र अतिशय क्षेत्रों को, नमन करूँ भवदुख खंडूं।।२५।।
ॐ ह्रीं वर्तमानकालीन चतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थ अन्यसिद्धक्षेत्रअतिशयक्षेत्रेभ्यो पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा। शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।।
जाप्य मंत्र - ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरपंचकल्याणक-पवित्रअयोध्यादिपावापुरीपर्यंततीर्थक्षेत्रेभ्यो नम:। (१०८ बार पीले पुष्प या लवंग से) जयमाला जो भवसमुद्र से तिरवाता, वह तीर्थ कहा जाता जग में। वह द्रव्य तीर्थ औ भावतीर्थ, दो रूप कहा जिन आगम में।। तीर्थंकर के जन्मादिक से, पावन हैं द्रव्यतीर्थ सच में। हर प्राणी की आत्मा परमात्मा, भावतीर्थ मानी जग में।।१।। जय जय तीर्थंकर तीर्थनाथ, तुम धर्मतीर्थ के कर्ता हो। जय जय चौबीस जिनेश्वर तुम, त्रिभुवन गुणमणि के भर्ता हो।। जय ऋषभदेव से वीर प्रभू तक, सबकी महिमा न्यारी है। इन पंचकल्याणक के तीर्थों को, नितप्रति धोक हमारी है।।२।। चौबीसों जिन की जन्मभूमि का, अतिशय ग्रंथों में आया। जहाँ पन्द्रह-पन्द्रह मास रतन-वृष्टी सुरेन्द्र ने करवाया।। वह तीर्थ अयोध्या प्रथम तथा, कुण्डलपुर जन्मभूमि अन्तिम। जहाँ तीर्थंकर माताओं ने, देखे सोलह सपने स्वर्णिम।।३।। यूँ तो सब तीर्थंकर की शाश्वत-जन्मभूमि है अवधपुरी। लेकिन हुण्डावसर्पिणी में, हो गर्इं पृथक् ये जन्मथली।। इस कारण तीजे काल में ही, हुई कर्मभूमि प्रारंभ यहाँ। तब नगरि अयोध्या धन्य हुई, हुआ प्रथम प्रभू का जन्म जहाँ।।४।। उस शाश्वत तीर्थ अयोध्या में, इस युग के पाँच प्रभू जन्में। ऋषभेश अजित अभिनंदन एवं, सुमति अनंत उन्हें प्रणमें।। गणधर मुनि एवं इन्द्र आदि से, वंद्य अयोध्या नगरी है। वृषभेश्वर की ऊँची प्रतिमा, जहाँ तीर्थ की महिमा कहती है।।५।। इन जन्मभूमियों की श्रेणी में, श्रावस्ती संभव प्रभु की। कौशाम्बी पद्मप्रभ की वाराणसि, सुपाश्र्व पारस प्रभु की।। चन्द्रप्रभ जन्में चन्द्रपुरी में, पुष्पदन्त काकन्दी में। भद्रिकापुरी में शीतल जिन, जन्मे श्रेयाँस सिंहपुरि में।।६।। चम्पापुर नगरी वासुपूज्य की, जन्मभूमि से पावन है। पाँचों कल्याणक से केवल, चम्पापुर ही मनभावन है।। कम्पिलापुरी में विमलनाथ, है धर्मनाथ की रत्नपुरी। श्रीशांति वुंâथु अरनाथ तीन की, जन्मभूमि हस्तिनापुरी।।७।। मिथिलानगरी में मल्लिनाथ, नमिनाथ जिनेश्वर जन्मे हैं। मुनिसुव्रत जिनवर राजगृही, नेमी प्रभु शौरीपुर में हैं।। कुण्डलपुर में महावीर प्रभू का, नंद्यावर्त महल सुन्दर। प्राचीन छवी के ही प्रतीक में, ऊँचा बना सात मंजिल।।८।। ये सोलह तीर्थ सभी तीर्थंकर, के जन्मों से पावन हैं। ये गर्भ जन्म तप ज्ञान चार, कल्याणक से भी पावन हैं।। इनके वन्दन से निज घर में, लक्ष्मी का वास हुआ करता। इनके वन्दन से आतम में, सुख शांती लाभ हुआ करता।।९।। पूर्णाघ्र्य महाघ्र्य समर्पण कर, सब तीर्थ भाव से नमन करो। पूजन का फल पाने हेतू, सब राग द्वेष को शमन करो।। ज्यों राजहंस से मानसरोवर, की पहचान कही जाती।
त्यों ही जिनवर जन्मों से धरती, पावन पूज्य कही जाती।।१०।। तीरथ प्रयाग में ऋषभदेव के, दीक्षाज्ञान कल्याणक हैं। अहिछत्र तीर्थ पर पाश्र्वनाथ का, हुआ ज्ञानकल्याणक है।। जृंभिका ग्राम में ऋजुवूâला, नदि के तट पर महावीर प्रभू। वैâवल्यधाम को प्राप्त हुए, कर घातिकर्म का नाश प्रभू।।११।। वैâलाशगिरी से ऋषभदेव ने, मुक्तिश्री का वरण किया। चम्पापुर से प्रभु वासुपूज्य ने, मोक्षधाम में गमन किया।। गिरनार तीर्थ से नेमिनाथ, पावापुरि से महावीर प्रभू। सम्मेदशिखर पर तप करके, निर्वाण गये हैं बीस प्रभू।।१२।। यूँ तो जिनआगम में केवल, दो ही माने शाश्वत तीरथ। शुभतीर्थ अयोध्या जन्मभूमि, निर्वाणभूमि सम्मेदशिखर। पहले के सब तीर्थंकर नगरि-अयोध्या में ही जनमते थे। फिर कर्मनाश सम्मेदशिखर से, मुक्तिप्रिया को वरते थे।।१३।। निज जन्मभूमि से अलग ऋषभ, प्रभु नेमिनाथ ने दीक्षा ली। बाकी बाइस तीर्थंकर ने, निज जन्मभूमि में दीक्षा ली।। ऐसे ही तीन जिनेश्वर को, अन्यत्र सु केवलज्ञान हुआ। श्री ऋषभ-पाश्र्व-महावीर प्रभू का, समवसरण निर्माण हुआ।।१४।। इन पंचकल्याणक तीर्थों को है, मेरा बारम्बार नमन। कुछ सिद्धक्षेत्र अतिशयक्षेत्रों को, भी मेरा शत-शत वन्दन।। मेरी आत्मा भी तीर्थ बने, मैं तीर्थंकर पद को पाऊँ। कर धर्मतीर्थ का वर्तन मैं, शाश्वत सुख में बस रम जाऊँ।।१५।। इस युग की गणिनीप्रमुख ज्ञानमति माता की प्रेरणा मिली। कल्याणक तीर्थों का विकास, करने की नव चेतना मिली।। उनकी शिष्या आर्यिका ‘‘चन्दनामति’’ की है याचना यही। शिवपद पाने तक तीर्थों के, प्रति भक्ति रहे भावना यही।।१६।।
-दोहा- शब्दों की जयमाल यह, अर्पूं जिनपद मांहि। अष्टद्रव्य का थाल ले, अघ्र्य चढ़ाऊँ आय।।१७।। ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतितीर्थंकराणां पंचकल्याणकतीर्थेभ्य: जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा। शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:। -शेर छंद- तीर्थंकरों के पंचकल्याणक जो तीर्थ हैं। उनकी यशोगाथा से जो जीवन्त तीर्थ हैं।। निज आत्म के कल्याण हेतु उनको मैं जजूँ। फिर ‘‘चन्दनामती’’ पुन: भव वन में ना पंâसूँ।।।। इत्याशीर्वाद:।।</poem>